Book Title: Parmatma Darshan
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 353
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३४२ ) सिद्ध. भावार्थ- परमात्मतत्व स्वाभाविक सदाकाल आनंदरूपछे. बळी शुद्ध निश्वयनयथी जोतां परमात्मतत्त्व केवा प्रकारछे ते जणावे छे के समस्त प्रकारना संकल्प अने विकल्पथी रहिछे, एवा परमात्मतत्वमां सहज स्वरुपमां लीन थएला भव्यो सदाकाल वसेछे, एवं परमात्मतत्व योगी पोतानी मेळे अनायासे जाणेछे. उत्कृष्ट आरहादी संपन्न अने रागद्वेषरहित आत्मा आ शरीरमां वस्योछे तेज हुं परमात्मा एम जे जाणे छे ते पंडित जाणवो. परमात्मस्वरूप एवो आत्मा संसारमां परिभ्रमण करेछे तेनुं शुं कारण छे ते दर्शावेछे. गाथा. आया नाणसहावी, दंसण सीलोविसुद्ध सुरूवो ॥ सो संसारे भमइ, एसो दोसो खु मोहस्स १ आत्मा ज्ञानस्वभावी अने अनंत दर्शनगुणमयछे वळी ते निश्रयथी विशुध्ध तथा अनंत सुखवान् छतां संसारमां परिभ्रमण करेछे तेमां मोनो दोष छे. माटे आत्मार्थो भव्य जीव मोहनो जय करे. मन विचारे के आ दुनीयामांनी सर्व जड वस्तुओ मारी नयी अने हुं तेनो नथी एम भावतां मोहरिपुनो जय करी शकाय छे. त्यारे हवे मारु शुं एम जिज्ञासा शिष्यने थतां गुरू महाराज कहे छे के श्लोक. शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानगुणो मम नान्योऽहं सिद्धबुद्धोsहं, निर्लेपोनिष्क्रियः सदा ||१|| सकल पुद्गलना आश्लेषथी रहीत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, अव्यावाधादि अनंत गुगपर्यायमय असंख्य प्रदेशी शुध्व F For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432