Book Title: Panchsangrah
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ प्रस्तावना किन्तु श्वे० पञ्चसंग्रहकी स्थिति कुछ भिन्न है। उसके रचयिताने स्वयं ही दोनों प्रकारके नाम दिये हैं । जिनमें प्रथम प्रकारके नामोंका उल्लेख करते हुए कहा है कि यतः इस ग्रन्थ में शतक आदि पाँच ग्रन्थ यथास्थान संक्षिप्त करके संग्रह किये गये हैं, अतः इस ग्रन्थका नाम पञ्चसंग्रह है। अथवा इसमें बन्धक आदि पाँच अधिकार वर्णन किये गये हैं, इसलिए भी इसका पंचसंग्रह यह नाम यथार्थ या सार्थक है । प्राकृत और संस्कृत पञ्चसंग्रहकी तुलना आ० अमितगतिने अपने संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचना यद्यपि प्राकृत पञ्चसंग्रहके आधारपर ही की है, तथापि उनकी रचना में अनेक विशेषताएँ या विभिन्नताएँ हैं, जिनका विश्लेषण हम निम्नप्रकारसे कर सकते हैं ( १ ) मौलिक मतभेद या विशेष मान्यताओंका निरूपण ( २ ) पल्लवित वैशिष्ट्य (३) व्युत्क्रम या आगे-पीछे वर्णन ( ४ ) स्खलन या विषयका छोड़ देना ( ५ ) शैली-भेद ( ६ ) कुछ विशिष्ट ग्रन्थ या ग्रन्थकारोंके उद्धरण उल्लेख आदि १. मौलिक मतभेद या विशेष मान्यताओंका निरूपण १. प्रा० पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें वेदमार्गणा के भीतर द्रव्य और भाववेदकी जीवों के विसदृशता वर्णन करनेवाली दो गाथाएँ इस प्रकार हैं दोनों गाथाएं अर्थकी दृष्टिसे प्रायः समान हैं, एक श्लोक रचा है तिब्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हु दव्वभावादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकमं सव्वे ॥ १०२ ॥ इत्थी पुरिस णडंसब वेषा खलु दव्व-भावदो होंति । ते चैव य विवरीया विवरीया हवंति सच्चे जहाकमसो ॥ १०४ ॥ १. ३ Jain Education International स्त्रीपुन्नपुंसका जीवाः सदशाः द्रव्य-भावतः । जायन्ते विसदृताश्च कर्मपाकनियन्त्रिताः ॥ १३२ ॥ ऊपरकी दोनों गाथाओंका और इस श्लोकका अर्थ एक ही है कि जीव कर्मोदयसे द्रव्य और भाववेदकी अपेक्षा स्त्री, पुरुष और नपुंसकरूपमें कभी सदृश भी होते हैं और कभी विसदृश भी होते हैं । किन्तु सं० पञ्चसंग्रहकारके सम्मुख संभवतः अन्य मान्यता भी उपस्थित थी और इसलिए प्रा० पञ्चसंग्रह में उसके नहीं होते हुए भी उन्होंने उसे यहाँ स्थान दिया, जो कि इस प्रकार है इसलिए अमितगतिने दूसरी गाथाके आधारपर केवल नान्तमौहूर्त्तिका वेदास्ततः सन्ति कषायवत् । आजन्ममृत्युतस्तेषामुदयो दृश्यते यतः ॥ १६१ ॥ कपायोंके उदयके समान वेदोंका उदय अन्तर्मुहर्तमात्र कालावस्थायी नहीं है; क्योंकि जन्मसे लेकर मरण - पर्यन्त एक जीवके एक ही वेदका उदय देखा जाता है । १७ सदृशता और स्थगाइ पंच गंधा जहारिहं जेण एस्थ संखिता । दाराणि पंच अड़वा तेण जहस्थाभिहाणमिणं ॥ ( श्वे० पंचसं० द्वा० १ गा० २ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 ... 872