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प्रस्तावना
(५) दि० प्रा० पश्वसंग्रह टीका-दि० प्राकृत पञ्चसंग्रहपर यह एकमात्र संस्कृत टीका उपलब्ध हई है, वह भी अपूर्ण । इस प्रतिका विशेष परिचय प्रति-परिचयमें दिया जा चुका है। टीका बहत सरल है; मलके भावको उत्तम रीतिसे प्रकट करती है। टीकाकारने अर्थको स्पष्ट करनेके लिए मूल प्राकृत या संस्कृत पञ्चसंग्रहमें दी गई संदृष्टियोंके अतिरिक्त अनेकों और भी संदृष्टियाँ लिखी हैं। इस टीकाके रचयिता श्री सुमतिकीत्ति हैं, जो सम्भवतः भट्टारक थे। इस टीकाकी रचना वि० सं० १६२० के भादों सुदी १० को हुई है।
(६ ) दि० प्राकृत पञ्चसंग्रह मूल और प्राकृत वृत्ति-प्रा० पञ्चसंग्रहके मूल आधार जो पाँच मूल ग्रन्थ हैं, उनके ऊपर श्री पद्मनन्दिने प्राकृत वृत्तिकी रचना की है, जिसकी शैली प्राचीन चूणियोंके समान है। यह मूल और वृत्ति दोनों ही अपनी एक खास महत्ता रखती है, यह आगे बताया जायगा । इसके मूल प्रकरणोंकी गाथा-संख्या ४१८ है और प्राकृतवृत्तिका परिमाण लगभग ४००० श्लोक है। ये दोनों ही प्रथम बार इसी ग्रन्थके साथ परिशिष्टमें प्रकाशित हो रहे हैं। प्राकृतवृत्तिका रचनाकाल भी अभी तक अज्ञात ही है।
इनके अतिरिक्त और भी अनेक पंचसंग्रहोंका उल्लेख मिलता है। उनमेंसे गोम्मटसार जीवकांडकर्मकाण्डको भी पञ्चसंग्रह कहा जाता है; उनमें भी उक्त ग्रन्थोंके समान बन्धक, बन्धव्य, आदि पाँचों विषयोंका प्रतिपादन किया गया है। दि० प्राकृत पञ्चसंग्रहके संस्कृत टीकाकार तो इसी कारण इतने अधिक भ्रमित हुए हैं कि उन्होंने प्रत्येक प्रकरणकी समाप्ति करते हुए "इति श्रीपञ्चसंग्रहापरनाम लघुगोम्मटसार टीकायां' लिखा है और टीकाके अन्तमें भी "इति श्री लघुगोम्मटसार टीका समाप्ता' लिखा है। श्री हरि दामोदर बेलंकरने अपने श्री जिनरत्न कोशमें 'पञ्चसंग्रह दोपक" नामके एक और भी ग्रन्थका उल्लेख किया है। इसके रचयिता श्री इन्द्र वामदेव हैं। उन्होंने इसे गोम्मटसारका पद्यानुबाद बतलाया है और उसके पांचों प्रकरणोंकी श्लोक-संख्या क्रमशः ८२५ + १४१ + १२५+ १८७ + २२. दी है, जिनका योग १४९८ होता है। यह अभी तक मेरे देखने में नहीं आई, इसलिए इसके विषयमें इससे अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता है ।
उक्त जिनरत्नकोशमें हरिभद्रसूरि-द्वारा बनाये गये एक और पञ्चसंग्रहका उल्लेख किया गया है। पर हरिभद्रसूरि-रचित ग्रन्थोंकी जितनी भी सूचियाँ मेरे देखने में आई हैं, उनमेंसे किसीमें भी मैंने इस ग्रन्थका नाम नहीं देखा । इसके प्रकाशमें आनेपर ही उसके विषयमें कुछ विशेष जाना जा सकेगा।
उपर्युक्त विवेचनसे इतना तो स्पष्ट है कि पञ्चसंग्रहके आधारभूत बन्ध, बन्धक आदि पाँचों द्वार जैन दर्शनके लक्ष्यभूत मुख्य विषय हैं और इसीलिए दोनों सम्प्रदायके आविर्भाव होनेके पहलेसे ही जैन आचार्योंने उनपर प्रकरण-ग्रन्थोंकी रचना की और उनके आधारपर दोनों ही सम्प्रदायोंके आचार्योंने 'पञ्चसंग्रह' यही नाम देकर उनपर तदाधारसे स्वतन्त्र ग्रन्थोंकी रचनाएँ की और अनेक टीका-टिप्पणियों और चणियोंको लिखा।
जैन वाङ्मयमें पञ्चसंग्रह नामके अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमेंसे कुछ प्राकृतमें और कुछ संस्कृतमें रचे गये हैं। इनमेंसे कुछ दिगम्बराचार्यों के द्वारा रचे गये हैं और कुछ श्वेताम्बराचार्योंके द्वारा । यहाँ एक बात खास तौरसे ज्ञातव्य है और वह यह कि इन दोनों सम्प्रदायोंके द्वारा रचे गये या संकलन किये गये पंचसंग्रहोंमें जिन पाँच ग्रंथों या प्रकरणोंका संग्रह है, उनमेंसे एकाधको छोड़कर प्रायः सभी ग्रन्थों या मल प्रकरणोंके रचयिताओंके नामादि अभी तक भी अज्ञात हैं और इसीसे उन मूल ग्रन्थोंकी प्राचीनता
माणित होती है । मूलग्रन्थोंके अध्ययन करनेपर ऐसा ज्ञात होता है कि उनकी रचना उस समय हई है, जबकि जैन-परम्परा अक्षण्ण थी और उसमें दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसे भेद उत्पन्न नहीं हए थे। कालान्तरमें जब इन दोनों भेदोंने जैन-परम्परामें अपना स्थान दृढ़ कर लिया, तब पूर्व-परम्परासे चले आये श्रुतको उन्होंने अपनी-अपनी मान्यताओंके अनुरूप निबद्ध करना प्रारम्भ किया । संस्कृत-ग्रन्थोंमें जैसे तत्त्वार्थसूत्र अपनी-अपनी मान्यता-गत पाठ-भेदोंके साथ दोनों सम्प्रदायोंमें सम्मानित है और दोनों ही सम्प्रदायोंके आचार्योंने उसपर टीका-टिप्पण और भाष्यादि लिखे हैं, ठीक उसी प्रकार प्राकृत ग्रन्थोंमें हमें एकमात्र पंचसंग्रह ही
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