Book Title: Panchsangrah
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 17
________________ १४ पञ्चसंग्रह प्रतिके अन्तमें जो लेखक-प्रशस्ति पाई जाती हैं, वह इस प्रकार है "संवत् १५२६ वर्षे कातिक सुदि ५ श्रीमूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्रीपद्मनन्दिस्तत्पट्टे भ० श्रीशुभचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीजिनचन्द्रदेव भ० श्रीपद्मनन्दिसिक्ष ( शिष्य ) मु० मदनकीर्तिस्तच्छिष्य ब्र० नरसिंघ तस्योपदेशात् खण्डेलवालान्वये वाकुल्या वालगोत्रे सं पचाइण भार्या केलू तयो त्र जैता भार्या जैतश्री तयोः पुत्र जिणदास सं० पचाइणाख्येन इदं शास्त्रं लिखापितम् ।" इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इस प्रतिको ब्र० नरसिंहके उपदेशसे खण्डेलवाल वंशीय और बाकलीवालगोत्रीय संघी या संघपति पचाइणने लिखवाया । प्राकृतवृत्तिके पश्चात् (पृ० ६६३ ई०) श्रीडड्ढाकृत संस्कृत पञ्चसंग्रह मुद्रित किया गया है। इसकी एक मात्र प्रति ईडरके शास्त्र-भण्डारसे प्राप्त हुई है जिसका वेष्टन नं० २१ है। इसका आकार १२४५ इञ्च है । पत्र-संख्या ९५ है। प्रति-पृष्ठ पंक्ति-संख्या १० और प्रति-पंक्ति अक्षर-संख्या ३५-३६ है। प्रति साधारणतः शुद्ध है, किन्तु पडिमात्रा और गुजराती टाइपकी अक्षर-बनावट होनेसे पढ़ने में दुर्गम है। कागज बाँसका और पतला है। प्रतिके अन्तमें लेखन-काल नहीं दिया है, तथापि वह लिखावट आदिकी दृष्टिसे, ३०० वर्षके लगभग प्राचीन अवश्य है। पञ्चसंग्रह-परिचय समस्त जैन वाङ्मयमें पंचसंग्रहके नामसे उपलब्ध या उल्लिखित ग्रन्थोंकी तालिका इस प्रकार है (१) दि० प्राकृतपञ्चसंग्रह-उपलब्ध सर्व पञ्चसंग्रहों में यह सबसे प्राचीन दि० परम्पराका ग्रन्थ है। मूल प्रकरणोंके समान उनके संग्रह करनेवाले और उनपर भाष्य-गाथाएँ लिखनेवाले इस ग्रन्धकारका नाम और समय अभी तक अज्ञात है। पर इतना तो निश्चय पूर्वक कहा ही जा सकता है कि श्वेताम्बराचार्य श्री चन्द्रर्षिमहत्तरके द्वारा रचे गये पंचसंग्रहसे यह प्राचीन है। मूलप्रकरणोंके साथ इसकी गाथा-संख्या १३२४ है । गद्यभाग लगभग ५०० श्लोक प्रमाण है । यह प्रस्तुत ग्रन्थ पहली बार प्रकाशित हो रहा है। (२) श्वे० प्राकृत पञ्चसंग्रह-कर्मसिद्धान्तकी जिन मान्यताओंमें दिगम्बर-श्वेताम्बर आचार्योका मतभेद रहा है, उनमेंसे श्वे० परम्पराके अनुसार मन्तव्योंको प्रकट करते हुए प्राचीन शतक आदि पांच ग्रन्थोंका संक्षेप कर स्वतन्त्ररूपसे इस ग्रन्थकी रचना की गई है। इसमें शतक आदि मूलग्रन्थोंकी गाथाएँ नहीं हैं। समस्त गाथा-संख्या १००५ है। रचना कुछ क्लिष्ट होनेसे ग्रन्थकारने इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी है। जिसका प्रमाण आठ हजार श्लोक है। इसपर मलयगिरिकी संस्कृत टीका भी है। यह ग्रंथ उक्त दोनों टीकाओंके साथ मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोइ (गुजरात) से सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ है । श्वे० मान्यतासे इसका रचनाकाल विक्रमकी सातवीं शताब्दी है। ३) दि० संस्कृत पञ्चसंग्रह ( प्रथम ) दि० प्रा० पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर उसे यथासम्भव पल्लवित करते हए आ० अमितगतिने इसकी संस्कृत श्लोकोंमें रचना की है। इसके पाँचों प्रकरणोंकी श्लोकसंख्या १४५६ है । लगभग १००० श्लोक-प्रमाण गद्य-भाग है। इसका रचना-काल वि० सं० १०७३ है । यह मूल रूपमें सर्व-प्रथम माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे सन् १९२७ में प्रकाशित हुआ और पीछे पं० वंशी. धरजी शास्त्रीके अनुवादके साथ सोलापुरसे प्रकाशित हुआ है। (४) दि० सं० पञ्चसंग्रह ( द्वितीय )-इसकी रचना भी दि० प्रा० पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर की गई है। इसमें अमितगतिके सं० पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा अनेक विशेषताएँ हैं जिनका दिग्दर्शन आगे कराया जायगा। इसके रचयिता श्रीपालसुत श्री डड्डा हैं, जो एक जैन गृहस्थ हैं। इसकी समस्त श्लोक-संख्या १२४३ है और गद्य-भाग लगभग ७०० श्लोक प्रमाण है। इसका रचनाकाल अनुमानतः विक्रमकी सत्तरहवीं शताब्दी है। इसकी एकमात्र प्रति ईडरके भण्डारसे प्राप्त हुई। यह पहली बार इसी ग्रन्थके साथ परिशिष्ट रूप में प्रकाशित हो रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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