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पञ्चसंग्रह
इसके पश्चात् लेखकने अपनी प्रशस्ति इस प्रकार दी है
"॥श्री।। संवत् १५४८ वर्षे आसो सुदि ३ शनी सागवाडाशुभस्थाने श्री आदिनाथ चैत्यालये श्री मूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्री विजयकीत्ति तच्छिष्य आ. श्री अभयचन्द्रदेवा: तच्छिष्य मु० महीभूषणेन कर्मक्षयार्थं स्वयमेव लिखितं ॥छ।। शुभं भवतु ।।"
॥श्री ॥ श्री ।। श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ इस प्रशस्तिमें लेखकने प्रायः सभी आवश्यक बातोंकी जानकारी दे दी है । तदनुसार यह प्रति आजसे ४६९ वर्ष पूर्वकी लिखी हुई है। इसके लेखक मुनि महीभूषणने सागवाड़ाके श्री आदिनाथ चैत्यालयमें बैठकर कर्म-क्षयके लिए स्वयं ही अपने हाथसे इसे लिखा है । इस दृष्टि से इस प्रतिका महत्त्व बहुत अधिक है कि वह एक मुनिके हाथसे लिखी हुई है और उस समय-जब कि जीवराज पापड़ीलाल जैसे सम्पन्न गृहस्थ सहस्रों जैन मूत्तियोंके निर्माण और प्रतिष्ठापनमें लग रहे थे, तब एक साधु कर्म-सिद्धान्तके एक प्राचीन ग्रन्थको लिखकर कर्म-क्षयके लिए अपनी आत्म-साधनामें संलग्न थे। आज भी यह अनुकरणीय है।
उक्त प्रशस्तिके पश्चात् भिन्न वर्णकी स्याही और बारीक कलमसे लिखा है"मुनिश्रीरविभूषणस्तच्छिष्य ब्रह्मगणजीष्णोरिदं पुस्तकं ॥"
तत्पश्चात् भिन्न कलमसे 'ब्र० वछराज' लिखा है। तदनन्तर इसके नीचे अन्य स्याही और अन्य कलमसे लिखा है
"इदं पुराणं आचार्य श्री रामकीतिको छै” ।
ऊपरके इन उल्लेखोंसे पता चलता है कि मुनि महीभूषणके पश्चात् उक्त प्रति मुनि श्री रविभूषणके शिष्य ब्रह्मगण जिष्णुके पास रही है। तदनन्तर ब्रः वच्छराजजीके अधिकारमें रही है, जो कि अपना नाम तक भी शुद्ध नहीं लिख सकते थे। उनके पश्चात् यह प्रति 'श्री रामकीति' के पास रही है। उनके ज्ञान और भावनाका अनुमान इस जरा-सी पंक्तिसे ही हो जाता है कि वे पंचसंग्रह जैसे कर्म-सिद्धान्तके ग्रन्थको एक पुराण ही समझते हैं और इसपर अपना अधिकार बतलानेके लिए स्वयं ही अपने आपको "आचार्यश्री" बतलाते हुए “रामकीत्तिको छै" लिख रहे हैं। ये आचार्य नहीं, किन्तु कोई ऐसे भट्टारक प्रतीत होते हैं, जिन्हें उक्त पंक्तिके प्रारम्भिक 'इदं' पदका 'अस्ति' क्रियाके साथ सम्बन्ध जोड़ने और पद-विभक्तिको शुद्ध लिखनेका भी संस्कृत ज्ञान नहीं था।
उपरि-निर्दिष्ट दोनों प्रतियोंके अतिरिक्त हमें जयपुर-शास्त्र भण्डारकी दूसरी दो और प्रतियाँ भी श्री कस्तू रचन्द्रजी काशलीवालकी कृपासे प्राप्त हुईं, जो कि ऐलक सरस्वती भवनकी प्रतियोंके बादकी लिखी हई हैं। इनमें प्रायः वे ही पाठ उपलब्ध हुए, जो कि ऊपरकी दोनों प्रतियोंमें पाये जाते हैं। किन्तु अपेक्षाकृत ये दोनों प्रतियाँ कुछ स्थलोंपर अशुद्ध लिखी दृष्टि-गोचर हुई, अतएव उनके साथ प्रेस-कापोका मिलान करनेपर भी उनके पाठ-भेद देना हमने आवश्यक नहीं समझा और इसीलिए उन प्रतियोंका कोई परिचय भी नहीं दिया जा रहा है।
संस्कृत टीका प्रतिका परिचय द यह प्रति श्रीदि० जैन पंचायती मन्दिर खजूर मस्जिद दिल्लीके प्राचीन शास्त्र-भण्डारकी है । यद्यपि यह प्रति अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण और खण्डित है, तथापि उक्त शास्त्रभण्डारके संरक्षकोंने उसका जीर्णोद्धार करके उसे पढ़ने और प्रतिलिपि करनेके योग्य बना दिया है। वर्तमान प्रतिमें प्रारम्भके दो पत्र तथा १८१ और १९४ का पत्र तो बिलकुल ही नहीं हैं, १८२ वाँ पत्र आधा है और २४-२५वाँ पत्र खण्डित एवं गलित है तथा बीचके कितने ही पत्रोंमें पानी लग जानेके कारण स्याही फैल गई है। इस प्रतिके अन्तमें पत्र-संख्या यद्यपि २०१ दी हुई है तथापि उसकी प्रतिलिपि करते समय ज्ञात हुआ कि प्रारम्भसे लेकर ५४वें पत्रके उत्तरार्धकी १३वीं पंक्ति तक तो पञ्चसंग्रहकी केवल मूल गाथाएँ ही लिखी गई हैं, टीकाका प्रारम्भ तो इस पत्रके उत्तरार्धकी १३वीं पंक्तिके 'खीयंति ।।३३।। च्छ्वासा: ४ प्रत्येकशरीर से होता है। इस स्थलको देखते
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