Book Title: Panchsangrah
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ प्रस्तावना मूलग्रन्थ प्रति-परिचय प्रा यह प्रति श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन व्यावरकी है । प्राकृत पञ्चसंग्रहकी जितनो भी प्रतियां हमें मिल सकी, उनमें यह सबसे प्राचीन है और अत्यन्त शुद्ध भी है। हमने इसीको आधार बनाकर पञ्चसंग्रहकी प्रतिलिपि की, अतः यह हमारे लिए आदर्श-प्रति रही है। इस आदर्श-प्रतिका आकार १३४५ इंच है। पत्र-संख्या ७५ है। पत्रके प्रत्येक पृष्ठपर पंक्ति-संख्या १० है और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या लगभग ५० के है । इस प्रकार पञ्चसंग्रहकी समस्त गाथाओं, अंकसंदष्टियों और गद्यांशोंका श्लोक-प्रमाण लगभग ढाई हजार है। प्रतिके प्रथम पत्रके ऊपरी पृष्ठपर 'पंचसंग्रह ग्रंथ, दिगम्बर जैन मन्दिर मोजगढ़, राज सवाई जैपुर' लिखा है। प्रतिके अन्तमें लेखक-प्रशस्ति इस प्रकार पाई जाती है "संवत् १५३७ वर्षे आषाढ़ सुदि ५ श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनन्दिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीजिनचन्द्रदेवास्तच्छिष्यमुनिश्रीभुवनकीत्तिस्तदाम्नाये खंडेलवालान्वये राउकागोत्रे साधु थेल्हा तद्भार्या थेल्हसिरी, तत्पुत्रास्त्रयो धीरा दानपूजातत्पराः साधु नापा, द्वितीय माणा, तृतीय घेता। नापा-भार्या गोगल, तत्पुत्र दासा । एतेषां मध्ये साधु नापाख्येन इदं ग्रन्थं लिखाप्य बाई गजरिजोगु दत्तं विद्वद्भिः पठ्यमानं चिरं नंदतु ॥०॥श्री॥" उक्त प्रशस्तिसे सिद्ध है कि यह प्रति ४८० वर्ष प्राचीन है। इसे खंडेलवाल-वंशीय एवं रांवकागोत्रीय नापासाहुने लिखवाकर किसी ब्रह्मचारिणी बाई गूजरिजोगुके पठनार्थ प्रदान किया है। नापासाहुने अपने जन्मसे किस नगर या ग्रामको पवित्र किया, इस बातका पता उक्त प्रशस्तिसे नहीं लगता है। संभव है कि प्रशस्तिमें दी गई भट्टारक-परम्पराकी विशेष छान-बीन करनेपर नापासाहुकी जन्म-भूमि आदिका कुछ पता लग जावे। ब यह प्रति भी श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवनकी है। उपलब्ध प्रतियोंमें प्राचीनताकी दृष्टिसे इसका दूसरा स्थान है और यह भी पूर्व प्रतिके समान शुद्ध है। हाँ, प्राकृत भाषा-सम्बन्धी अनेक पाठभेद इसमें पाये जाते हैं, जिन्हें हमने यथास्थान टिप्पणमें ब संकेतके साथ दिया है । दोनों प्रतियोंमें एक मौलिक अन्तर है। शतक-प्रकरणकी गाथा नं० ६ आदर्शप्रतिमें नहीं है, जबकि वह इस प्रतिमें तथा इसके अतिरिक्त उपलब्ध अन्य अनेक प्रतियोंमें पाई जाती है। इस प्रतिका आकार लेना हम भूल गये । पत्र-संख्या १०६ है । पत्रके प्रत्येक पृष्ठपर पंक्ति-संख्या १० है और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या ३४-३५ के लगभग है। इस प्रतिमें ग्रन्थ-समाप्तिकी सूचना करते हुए निम्न गद्य-सन्दर्भ भी पाया जाता है "इति पंचसंग्रहः समाप्तः ॥ श्री ।। * ॥ वासपुधत्तं त्रयाणामुपरि नवानां मध्यं ४-५-६-७-८-९।। श्री क्वचित्समाप्तौ चेति दृश्यते ।।७।८।। अंतःकोडाकोडिसंज्ञा सागरोपमैककोट्युपरि कोटीकोटीमध्यं । अन्त:कोडाकोडिसंज्ञा गोमटसारटीकायां समयूणकोडाकोडिप्पदि समयाहियकोडि त्ति ।" इस गद्य-सन्दर्भमें किसी पाटकने तीन बातोंकी जानकारी दी है--पहली बातमें वर्षपृथक्त्वका प्रमाण बतलाया है कि तीन वर्षसे ऊपर और नौ वर्षसे नीचेके मध्यवर्ती कालको वर्षपृथक्त्व कहते है। दूसरी बात 'इति' शब्दके सम्बन्धमें बतलाई है कि इति शब्दका प्रयोग कहीं 'समाप्ति के अर्थमें भी देखा जाता है। तीसरी बात जो बतलाई गई है, वह एक सैद्धान्तिक मत-भेदको व्यक्त करती है। एक मतके अनुसार एक सागरोपम कोटि वर्षसे ऊपर और एक सागरोपम कोटाकोटि वर्षसे नीचेके कालको 'अन्तःकोडाकोडी' कहते हैं। किन्तु गोम्मटसारकी टीकामें एक समयाधिक कोटिवर्षसे लेकर एक समय-कम कोटाकोटिवर्ष तकके कालको अन्त:कोडाकोडी कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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