Book Title: Panchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Author(s): Yashovijay Gani, Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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१०८ बोल संग्रह
( १६ )
मिथ्यात्वीनइं देवाराधन अध्यवसाय जीवहिंसादिक अध्यवसायथी पणि घणुं दुष्ट एहवं सर्वज्ञशतक मां लिख्यं छई ए एकांत ग्रहवो ते खोटो जे माटइं आदि धार्मिक नई साधारण - देवभक्ति योग प्रमुख ग्रंथमां संसार-तरणनं हेतु कहि छ
॥१६॥
( १७ )
मिथ्यात्वना गुण ते सर्वथा ज गुणमां न गणिई एहवं कहिहइ" छइं ते पण न घटइं
१
जे माटई मिथ्यादृष्टिना गुण आव्यई ज, सूधुं पहिलं गुणठाणं हुई, एवं योगदृष्टिसमुच्चय ग्रंथमां कहिउं छई ।। १७ ।। ( १७ )
परसमयमा न कहीनां स्वसमयमां कही, एहवीज क्रिया सुपात्रदान, जिननी पूजा, सामाइक प्रमुख, मार्गानुसारिपणानं कारण, एहवुं कहिउं छई, ते पणि एकांत न घटई
जे माटई उभयसंमत दयादानादिक क्रियाई पणि मार्गानुसारिपणुं योगबिंदु प्रमुख ग्रंथई कहिउं छई ॥ १८ ॥ ( १९ )
उत्कर्षथी अपार्द्धपुद्गलपरावर्त्त शेष संसार हुइ तेहज मार्गानुसारी एहवुं लिख्यं छइ ते पणि विचारवुं -
जे माटई उपदेशपदमां वचनौषध प्रयोगकाल चरमपुद्गलपरावर्त्तज कहिउं छई तथा योगबिंदुनी [वी ] सविशीप्रमुख ग्रंथानुसारइं पणि एक चरमपुद्गलपरावर्त्त मार्गानुसारिनो काल जणाई छ ।। १९ ।।
१. कह ।