Book Title: Panchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Author(s): Yashovijay Gani, Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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१०८ बोल संग्रह अपवादकल्प कहिई ते छद्मस्यनुलिंग केवलीनइं न हुइ, एहतु कहइ छइं ते न घटइं, ते माटइं उत्सर्ग अपवाद टाली रोजो अपवादकल्प किंहांइ कहिओ नथी इच्छाई ३ भेद कल्पिई उत्सर्गकल्पनामइं चोथो भेद कल्पता पणि कुण ना कहइ, तथा केवलि व्यवहारानुसारई प्रतिलेखनादिक क्रिया पणि केवलोनई छई ते प्रीछवु।। ९३ ॥
( ९४ ) बिलवासी मनुष्य पणि जातिस्मरणादिकई मांसभक्षण अतिनिदित जाणो परिहरई छइ, ते माटइं मांसभक्षणथी सम्यक्त्वनो नाशज हुई एहवं लिख्युं छई ते न घटइ, जे गटइं मांसभक्षणनी परि परदारागमन पणि महानिदित छइं तेहथी सत्यकिविद्याधरप्रमुखनइ जो सम्यक्त्व न गयूं तो मांसभक्षणथी कृष्णादिकनं सम्यक्त्व न जाइं तिहां बाधक नथी।। ९४ ॥
मांसाहार नरकायुर्बन्धस्थानक छइं ते माटइं तेहनी अनिवत्ति सम्यक्त्व न हुई एहवं लिख्यु छइ ते न घटइ, जे माटइं महारंभ महापरिग्रहादिक पणि नरकायुबंधस्थानक छइं तेहनी अनिवृत्ति पणि जिम कृष्णादिकनइं सम्यक्त्व छई तिम मांस भक्षणनी अनिवृत्ति पणि सम्यक्त्व हुई तिहां बाधक नथी ॥१५॥
"तए ण से दुवए राया कंपिल्लपुर णंगरं अणुप्वविसइ अणुपविसित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता कोडुबिय पुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता-एवं वयासी गच्छह गं तुम्हे (तुब्भे ?) देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाण
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