Book Title: Panchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Author(s): Yashovijay Gani, Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ २२ १०८ बील संग्रह सर्वनई जिवारदं द्रव्यहिंसा गुप्तिद्वाराइं न हुई तिवार चोथो भांगो घटई ॥ ७५ ॥ ( ७६ ) द्रव्यहिंसा पणि हिंसादोष स्वरूप एह कहि छइं ते न घटइं जे माटई - " समितस्य ईर्यासमितावुपयुक्तस्य 'आहच्च' कदाचिदपि हिंसा भवेत्सा द्रव्यतो हिंसा, इयं च प्रमादयोगाभावात्तत्वतो हिसैव मन्तव्या 'प्रमत्तयोगात ' प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इति वचनात् ( गा० ३९३२ बृत्तिः ) ए बृहत्कल्पनी वृत्ति वचनई अप्रमत्तनई द्रव्यथी हिंसा ते अहिंसा ज जणाई छइं ॥ ७६ ॥ ( ७७ ) बृहत्कल्पनी भाष्यवृत्तिमां वस्त्रेछेदनादि व्यापार करतां जीवहिंसा हुई, जे माटई जिहां ताइं जीव चालई हालई तिहां ताई आरंभ हुई एह भगवती सूत्रमां कहिउं छई एहवुं प्रेरकई कहिउ ते ऊपरि समाधान करतां आचार्यहं ते भगवती सूत्रना आलावानो अर्थ भिन्न न कहिओ केवल इमज कहिउं जे आज्ञाशुद्धनइं द्रव्यथी हिंसा ते हिंसामां ज न गणिदं यतः " यदेवं 'योगवन्त" - वस्त्र च्छेदनादिव्यापारवन्तं जीवं हिंसकं त्वं भाषसे तन्निश्चीयते सम्यक्सिद्धान्तमजानत एवं प्रलापः । नहि सिद्धान्त योगमात्रप्रत्ययादेव न हिंसोपवर्ण्यत, अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावादित्यादि" [गा० ३९९२ वृत्तिः ] तथाऽत्र चाद्यभंगे हिंसायां व्याप्रियमाणकाययोगोऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्त इत्यादि" [गा० ३९३४ वृत्तिः ] एई करी जे इम कहइ छइ केवलीना योगथी द्रव्यंहिंसा १. तत्वार्थं ० ० ७, सू० ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140