Book Title: Panchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Author(s): Yashovijay Gani, Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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१०८ बोल संग्रह
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माटई प्रमादो ज प्राणातिपातकर्ता कहिओ छइ इत्या दिक इहां घणुं विचारखु ं ॥ ८१ ॥
( ८२ );
प्रायइ असंभवी कदाचित् संभवइ ते २ अवश्यभावी कहिइं एहवो जीवघात अनाभोगइ छद्मस्थ संयतनई हुई पणि केवलीइं न हुई एह कहइं छइं ते न घटइं,
जे माटइं अनभिमतपणइ पणि अवर्जनीय त अवश्यभावी कहि ते हवो द्रव्यवध अनाभोग विणा पणि संभवई जिम तीन नदी उतरतां ॥ ८२ ॥
( ८३ )
केवलीना योगज जीवरक्षानुं कारण एहवु कहई छइँ तेहनइं मतई चउदमहं गुणठाणइं जीवरक्षा कारणयोग गया ते माटइं हीनपणु थयुं जोइइ ।। ८३ ।।
( ८४ )
केवलीनई बादरवायुकाय लगइ ति वारइं तथा नदी ऊतरतां अवश्यभाविनी जीवविराधना थाइं तिहां जे एहवुं कल्पइं छई बादर वायुकाय अचित्तन केवलीनइं लागइं तथा नदी ऊतरतां केवलीनइं जल अचित्तपणई ज परिणमई तिहां कोइ प्रमाण नथी, केवलि योगनो ज एहवो अतिशय कहिहूं तो उल्लंघन-प्रलंघन-प्रतिलेखनादि व्यापारनु निरर्थकपणु थाइ
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( ५ )
एगई ज की ए कल्पना विषेषी जो केवली समवादि परिणत हुई ति वारइं आपदं ज कीढी प्रमुख जीव लोसर