Book Title: Panchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Author(s): Yashovijay Gani, Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 51
________________ २० १०८ बोल संग्रह जे माटई अपवादई आभोगई हिंसाई पणि जिम आशयशुद्धताथी दोष नहि तिम अपवाद विना अशक्यपरिहार जीवविराधनाई पणि आशय शुद्धताई ज दोष न हुइ, नहीं तो विहारादिकक्रिया सर्व दुष्ट थाइ ॥ ७० ॥ ( ७१ ) सिद्धांतथी विराधनानो निश्चय थइं पोतानई अदर्शनमात्रइं जो विहारादिक क्रियामां जे विराधना छई तं अनाभोगइज कहिइ तो निरंतर जीवाकुल भूमि निर्धारो तिहां रात्रि विहार करतां विराधनानो अनाभोगज कहवाई ।। ७० ।। ( ७१ ) नदी ऊतरतां आभोगइं जलजीव विराधना यतिनइ हुई तो जलजीवघात विरति परिणाम खंडित हुइ ते भणि देशविरति थाइ जाणीनइं एकव्रतभंगइं सर्वविरति रहइ तो सम्यग्दृष्टि सर्वन इं चारित्र लेतां बाधक न हुई एह कहुई छई त न घटइ -- जे माटइं नदी ऊतरतां द्रव्यहिंसाई आज्ञाशुद्ध पणि ज दोष नथी । तथा सम्यग्दृष्टि योग्यता जाणीनइं ज चारित्र आदरई जिम व्यापारी व्यापार प्रति पछइ थोडी खोटी होई अनई संभाली लिई तो बाधा नहीं पणि पहिला खोटिज जाणी कोइ सबलो व्यापार आदरइ नहीं ते प्रोछ ।। ७१ ।। ( ७२ ) अपवादइं जिननो उपदेश हुई पणि विधिमुखइ आदेश न हइ एह कहइ छइ ते खोदु - जे माटइं छेदग्रंथई अपवादई घणां विधिवचन दीसई छइ ॥ ७२ ॥

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