Book Title: Panchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Author(s): Yashovijay Gani, Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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१०८ बोल संग्रह
( ६४ )
केवलीनई अपवाद न हुइ ज़ एहवु कहइ छइ ते न घटइं । जे माटई निशाहिडन श्रुतव्यवहार प्रमाण राखवा निमित्त अनेषणीय आहारग्रहणादिक अपवाद केवलीनइं पणि कहिया छर्इं ॥ ६४ ॥
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( ६५ )
ते अनेषणीय आहारग्रहण केवलीनई सावद्य नथी ते माटई हथी अपवाद न हुइ, अनइं जो छद्मस्थ अनेषणीय जाणई तो केवली भोजन न करइ, केवलीनी अपेक्षाई व्यवहार-शुद्धि इम न हुइ ते भणी अत एव नेती अशुद्ध जाणइ छइ ते भणी तेहेनों करिओ कोलापाक़ महावीरइं न लीधो एह्रवी कल्पना करइ छइं ते पणि निरर्थकः -
जे माटइं निशाहिंडनादिक छद्मस्थ दुष्ट जाणइ छइं तो पणि भगवंत अपवादि आदरिउं छई तथा निषिद्ध वस्तुलाभ जाणी उत्तमपुरुषई आदरी ते अदुष्ट कही अपवाद न कहिइं तो अपवाद किहांइं न हुई ।। ६५ ॥
( ६६ )
जाणीन इं जीवघात करई तेहज आरंभक कहइ छई ते न मिलई, माटई इम कहतां एकेन्द्रियादिक सूत्रई आरंभी कहिया छइ ते न घटइं ॥ ६६ ॥
( ६७ )
आभोगइ जीवहिंसा अवश्य भावियणिइ पणि यति न हुइज नदी उतरतां जलजीव विराधना हुई छड़ ते पण सचित्तता निश्चय नथी ते भणी अनाभोगजन्याशक्य परिहारई एहवं कहई छइं ते न घटइं—