Book Title: Panchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Author(s): Yashovijay Gani, Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
View full book text ________________
१०८ वोल संग्रह जे माटइं मेघकुमारनं जीव हस्तिप्रमुखनई दयादिक गुइण संसार पातलो थयो ते सूत्रि ज कहिउं छई ते सकामनिर्जरा 'विना किम घटइं। तथा मोक्षनइं अथि निर्जरा-ते सकामनिर्जरा कही छई ॥ ३६ ॥
( ३७ ) "कविला इत्थंपि इहयं पि" ए वचन मरीचिनी अपेक्षा उत्सूत्र नहीं, अनइं कपिलनी अपेक्षाइं उत्सूत्र, ते माटइं उत्सूत्र मिश्र कहिइं एहवं लिख्यं छे ते न घटइं
जे मार्टि इम करतां सिद्धान्तवचन पणि सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिनी अपेक्षाइं उत्सूत्रमिश्र थई जाइं तथा श्रुत भावभाषामिश्र हुई जनहीं एहवं दशवकालिकनी नियुक्तिमा कहिउं छइं॥३७॥
( ३८ ) मरीचिनुं वचन दुर्भाषित कहिइं पणि उत्सूत्र न कहिइं एहवंकहइं छइं ते न मिलइ__ जे माटइं पंचाशकवृत्ति-दुर्भाषितपदनो अर्थ उत्सूत्र करिओ छई ।। ३८ ॥
उत्सूत्रलेश मरीचिनुवचन कहिउं छइं ते माटई उत्सूत्रमिश्र कहिइं एहवं कहइ छइ ते न घटइं
जे माटइं 'द्रव्यस्तवमां-भावलेश' पंचाशकादिक ग्रंथई कहिओ छइं ते पणि भावमिश्र हुइ जाइं ॥ ३९ ॥
( ४० ) "इयमयुक्ततराद्द रन्तसंसारकारणम्' एहवु श्राद्धप्रतिक्रमण चूणि कहिउं छइं, तेहनो अर्थ ए विपरीत प्ररूपणा घणु
Loading... Page Navigation 1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140