Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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हरिभद्र ने जो विवरण और व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं, वे मात्र परम्परागत आचार को लेकर नहीं है, अपितु वे अपने युग में उठने वाली तत्सम्बन्धी समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत करती हैं और आज भी प्रासंगिक है।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का चतुर्थ अध्याय मुनि आचार से सम्बन्धित है। इसमें एक ओर जहां जैन मुनि आचार से सम्बन्धित नियमों की चर्चा है, वहीं दूसरी ओर जिन दीक्षा विधि के प्रसंग में मुनि के द्वारा करणीय कुछ विधि-विधानों की भी चर्चा की गई है। हम यह देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने श्रावक-आचार और मुनि-आचार से सम्बन्धित विषयों में आचार के सामान्य सिद्धान्तों के अतिरिक्त उन विधि-विधानों की भी तार्किक समीक्षा भी की है, जो जैन-आचार का ही एक महत्वपूर्ण पक्ष है। वस्तुतः हरिभद्र सिद्धान्त और व्यवहार दोनों के मध्य एक समन्वय करते हुए अपनी विवेचना प्रस्तुत करते हैं। मुनि आचार के सम्बन्ध में पंचाशकप्रकरण में उपलब्ध निम्न विषयों की चर्चा की गई है -
(1) जिनदीक्षाविधि, (2) साधुधर्मविधि, (3) साधु-समाचारी, (4) विधि-विधान विधि, (5) शीलांग विधान विधि, (6) आलोचना विधि, (7) प्रायश्चित् विधि, और (8) भिक्षु प्रतिमा विधि।
इसके पश्चात् प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के पंचम अध्याय में आचार्य हरिभद्र द्वारा वर्णित तप सम्बन्धी विधि-विधानों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रमुख रूप से तप के आगमिक एवं परवर्तीकालीन विभिन्न प्रकारों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि इन तप सम्बन्धी विधि-विधानों में से अनेक विधि-विधान मुनिधर्म से और अनेक श्रावक धर्म से सम्बन्धित है, अतः हमनें इनका एक स्वतन्त्र अध्याय के रूप में ही विवेचन करने का प्रयत्न किया है।
छटे अध्याय में जैन विधि-विधानों से सम्बन्धित साहित्य का निरूपण किया है। इसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा-दोनों के ग्रन्थों का समावेश किया गया है। इस शोधप्रबन्ध का अंतिम सप्तम अध्याय उपसंहार रूप है, इसमें जैनविधि विधानों की संक्षिप्त चर्चा के साथ उनका समीक्षात्मक मूल्यांकन भी है।
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