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विषयों की विवेचना की है, उनका युक्तिपूर्वक और समकालीन सन्दर्भों में मूल्यांकन करके उनकी उपादेयता पर विचार किया गया है।
प्रस्तुत शोधकार्य प्रयोगात्मक न होकर ग्रन्थ आधारित है अतः इसमें तथ्यों का संकलन और विश्लेषणं ही प्रमुख नहीं है । इस शोध की प्रविधि यही रही है कि प्रथमतया गवेषणीय इस ग्रन्थ में प्रतिपादित विषयों का हरिभद्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थों मे कहाँ और कैसा स्थान रहा है ? हरिभद्र ने उसमें क्या जोड़ा है ? और परवर्ती साहित्य पर उसका क्या प्रभाव रहा है, इसकी ग्रन्थाधारित चर्चा और समीक्षा की गई है और समकालीन परिस्थितियों में उनकी क्या उपादेयता है, इसका सम्यक् प्रकार से मूल्यांकन भी किया जाये ।
प्रस्तुत अध्ययन को मैंने मुख्य रूप से सात अध्यायों में विभक्त किया है।
प्रथम अध्याय में आचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व और कर्तृत्व को विवेचित करने का प्रयत्न किया गया है। इसी प्रसंग में आचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य की भी चर्चा की गई है। कर्तृत्व के अन्तर्गत उनकी उपलब्ध रचनाओं की विषयवस्तु पर भी संक्षेप में प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
इसके पश्चात् दूसरे अध्याय में हमने पंचाशक प्रकरण में उपलब्ध मोक्षमार्ग के चार अंगों की चर्चा की है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशकप्रकरण में सम्यग्दर्शन के अन्तर्गत श्रावक के कर्तव्यों की चर्चा की गई है। इसमें चैत्यवंदन जिनभवननिर्माण, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, जिनस्तव आदि की भी चर्चा है ।
सम्यग्ज्ञान की चर्चा पंचाशक में नहीं है अतः हरिभद्र के अन्य ग्रन्थों के आधार पर इसका संक्षेप में ही निर्देश किया गया है। सम्यक्चारित्र के सामान्य स्वरूप की चर्चा के बाद उसके दो भेदों का उल्लेख किया गया है, जिनकी विशेष चर्चा इस शोधप्रबन्ध के द्वितीय एवं तृतीय अध्यायों में क्रमशः की गई है। जहाँ तक सम्यक्तप का प्रश्न है, उस पर भी एक स्वतंत्र पंचम अध्याय की योजना की गई है। पुनः तृतीय अध्याय में श्रावक आचार के अन्तर्गत (1) श्रावक धर्म - विधि, (2) उपासक प्रतिमाविधि, आदि की चर्चा की गई है। इसी प्रसंग में श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों का भी उल्लेख किया गया है । इस चर्चा के प्रसंग में पंचाशकप्रकरण की टीका में अनेक प्रश्नों को उठाया गया हैं और उनका एक नवीन दृष्टि से समाधान करने का प्रयत्न भी किया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि पंचाशक प्रकरण में
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