Book Title: Paiavinnankaha Part 02
Author(s): Kastursuri, Somchandrasuri
Publisher: Rander Road Jain Sangh
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________________ 106 छउत्तरसयइमी 'संजमविसुद्धीए सइ अपमत्तभावो कायव्वो' इह सयभुदत्तसाहुणो - - - सव्वट्ठदेवजोग्गो, विसुद्धसंजम-पहावओ साहू / एक्केण हि रागेणं, सोहम्मे पडिय संजाओ / / 1 / / चारित्ताराहणोज्जुत्त-सयंभुदत्तसाहुणो / साहिज्जए इहं नायं, संजमसोहिवड्ढगं / / 2 / / कंचणपुरंमि नयरे जणपसिद्धा दो भायरा परुप्परदढपणया सयंभुदत्तो सुगुत्तो य वसंति / तेसिं नियकुलक्कम-अविरुद्धवित्तीए जीवणुवायं कुणमाणाणं लीलाए कालो वोलेइ / अह एगंमि अवसरे कूरगहवसओ वुट्ठीविरहेण पउरजणजणियदुक्खं घोरं दुब्भिक्खं निवडियं, ताहे' चिरसंगहिया महंता वि तिणरासिणो खीणा, सुमहल्ला वि धन्नाण वि पल्ला निहणं उवगया / सीयंतचउप्पयदुपयवग्गं अवलोइउणं परिचत्तववत्थो उव्विग्गो पत्थिवो वि नियपुरिसे आणवेइ-रे ! रे ! पुरिसा ! जस्स गेहंमि धन्नसंचओ जत्तिओ अस्थि, तस्स तेत्तियं एयस्स अद्धं वा बलाओ सिग्धं गिण्हेह त्ति / एवं आणत्तेहिं जमभिउडिभंगभीमेहिं तेहिं रायपुरिसेहिं सव्वत्थ तहेव सव्वं अणुट्ठियं / तओ छुहाओ धण-सयणनासओ य लोगो सविसेसं अञ्चंतरोगभर-विहुरिओ मरिउं समाढत्तो / गेहेसुं सुन्नीहुंतेसु, रुंडमुंडेहि रत्थासुं दुग्गमासुं, लोएसुं सुत्थदेसम्मि सरंतेसुं सो वि सयंभुदत्तो सुगुत्तसहिओ पुरओ नीहरिओ सत्येण समं देसंतराऽभिमुहं गंतुं लग्गो / सत्थे दूरपहं अइक्कंते रण्णमज्झम्मि य पत्ते तइया अकम्हा रणसज्जा चिलायघाडी समावडिया, सा य रणिक्कबद्धरंगिया जुज्झिउं लग्गिया / अह कुंत-खग्ग-भल्लगपमुहप्पहरणकरा समरधीरा सत्थसुहडा वि तीए समगं जुज्झिउं संपलग्गा / तया खंडिय-पयंडसुहडं विहडिय-रण-रहस-नस्सिर-नरकुंदं उप्पित्थसत्थनाहं महाभीमं समरं जायं / अञ्चंतनिद्दएण पबलबलेण चिलायनिवहेण कलिकालेणव्व धम्मो तह समत्थोवि सव्वसत्थो निहओ। तओ चिलायसेणा सारं अत्थं सुरूवरामाजणं मणुस्से य बंदिग्गाहेण घेत्तूणं पल्लिं गया / सो वि य सयंभुदत्तो कहं पि नियलहुभाउविउत्तो तीए चिलायसेणाए एसो धणवं ति चिंतिऊणं संगहिओ / सो सुचिरं निद्दयकसाधायबंधणाइहिं दिढं उवहओ वि देयदव्वं किं पि जाव न इच्छेइ ताव चिलाएहिं विणासियपसु-महिसरुहिर-धारा-णुलित्तभवणाए दाराऽवबद्ध-कुस्सर-रणंत-गुरुघंटयालीए पइदिण-पुत्रोवाइयचिलाय-कीरंत-तप्पणविहिए रत्तकणवीरमाला-विरइय-पूओवयाराए गयचम्मनिवसणाए पयंडरूवाए चामुंडाए उवहारत्थं भयवस-वेवंतसव्वंगो सो नीओ। ‘रे वणियाऽहम ! जइ जीवियव्वं अभिलससि, ता लहुं अज्ज वि अम्हाणं दव्वं दाउं इच्छसु, किं अकंडे जमभवणं गच्छसि ? एवं ते जंपंता सयंभुदत्तं जाव खग्गेण न घायंति ताव सहसा बहलहलबोलो समुट्ठिओ / 1. तदा / / 2. समारब्धः / / 3. किरातधारी / / 4. त्रस्त- / /

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