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किञ्चित् प्रास्ताविक द्वय इस विषयके उत्तम विशेषज्ञ हैं। श्री परीखजी गुजरातके ख्यातिप्राप्त नाट्यकारएवं नाट्यकलाविदोंके अग्र दिग्दर्शक हैं । संगीतराज महाग्रन्थका प्रस्तुत 'नृत्य रत्नकोश' प्रकरण ४ उल्लासोंमें विभक्त है । इनमें से प्रथम दो उल्लास, प्रथम भागके रूपमें, प्रकट किये जा रहे हैं । अवशिष्ट २ उल्लास, द्वितीय भागमें आवेंगे, जो प्रेसमें छप रहा है । संपादकोंकी लिखी गई विस्तृत प्रस्तावना आदि विवेचना, उसी द्वितीय भागमें दी जायगी; तथा ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियां एवं उनके बारेमें जानने योग्य अन्यान्य सब बातोंका विवरण भी उसीमें दिया जायगा।
इस संगीतराज ग्रन्थके भिन्न भिन्न खण्डोंकी जो प्राचीन पोथियां प्राप्त हो रही हैं, उनमें, परस्पर, ग्रन्थकर्ताविषयक प्रशस्यात्मक विशिष्ट उल्लेखोंमें विचित्र पाठ भेद मिलता है। एक प्रतिमें महाराणा कुंभकर्णकी जगह, किसी महाराज कालसेन और उसकी कीर्तिकथासूचक वर्ण्य प्रशस्ति दी हुई मिलती है । बीकानेरसे प्रकाशित 'पाख्य रत्नकोश की प्रस्तावनामें, उसके संपादक विद्वान् डॉ० कुन्हनराजाने इस विषयको ले कर बडे तर्क-वितर्क किये हैं और ग्रन्थकर्ताके बारेमें, वे एक प्रकारसे, बडे भ्रममें पड गये हैं। हमको इस भ्रमके निराकरणके लिये उन पोथियों ही से प्रत्यक्ष सामग्री प्राप्त है अतः इसका वर्णन भी उसी अगले भागमें दिया जायगा । बंबई - भारतीय विद्या भवन ।
मुनि जिन विजय दिनांक - २७, जनवरी. १९५७ ।