Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

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Page 9
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 07 को देखने का प्रयास करें, तो उन्हें कई पहलुओं से देखा जा सकता है। सर्वप्रथम इस सुधारवाद ने चरित्रहीन धर्माध्यक्षों के प्रमुख की सुविकसित व्यवस्था के विरुद्ध रोपोस्टोलिक ईसाईयत की सरलता को स्वीकार किया। साथ ही धर्मगुरुओं की (बाइबिल की) टीकाओं और चर्च की परम्पराओं के विपरीत बाइबिल के आदर्शों को, तथा धर्मोपदेशकों की प्रामाणिकता के विरुद्ध वैयक्तिक अंतरात्मा के निर्णय की प्रामाणिकता को स्वीकार किया। इसी प्रकार आत्मशुद्धि हेतु किए जाने वाले प्रायश्चित्तों के लिए पाप के नियंत्रण की अपेक्षा प्रत्येक मानवीय आत्मा को ईश्वर के प्रति उत्तरदायित्व पर बल दिया। क्योंकि प्रायश्चित्त व्यवस्था ने धर्मगुरुओं (पोपों) को धन के लोभ की विकृत अवस्था पर लाकर खड़ा कर दिया था। यहूदी नियमवाद और ईसाई धर्म के मौलिक विरोध को पुनर्जीवित करते हुए, सुधारवाद ने शाश्वत जीवन के लिए कर्मो के बाह्य स्वरूप की अपेक्षा आंतरिक आस्था को ही एकमात्र मार्ग स्वीकार किया। इस प्रकार पुनः आगस्टिन की ओर लौटते हुए तथा आगस्टिन के मूल मंतव्यों को नए सिद्धांतों के रूप में अभिव्यक्त करते हुए सुधारवाद ने उस नवपेलेगियनवाद का प्रतिरोध किया, जो कि धीरे से चर्च के आभासी आगस्टिनवाद के रूप में विकसित हो गया था। उसने यह भी माना कि मानव स्वभाव के पूरे पतन का कारण उस समता' के विरोध में होना है, जिसके द्वारा मध्ययुगीन दार्शनिकों के अनुसार ईश्वरीय कृपा को प्राप्त किया जा सकता है। सेंटपाल की विनयशीलता को पुनर्जीवित करते हुए, उसने ईसाई धर्म के सभी कर्तव्यों को सार्वभौम एवं निरपेक्ष आदेश के रूप में निरूपित किया तथा इस सिद्धांत के विरोध में यह मत स्थापित किया कि ईसाई-धर्म-पुस्तक की शिक्षाओं को अक्षरशः पालन के द्वारा ही समुचित पुण्य प्राप्त किया जा सकता है। सम्पूर्ण ईसाई आकारिता के अपरिहार्य निकम्मेपन को प्रकट किया। यद्यपि ये परिवर्तन बहुत ही महत्वपूर्ण थे, तथापि नैतिक दृष्टि से विचार करने पर या तो निषोधात्मक लगते हैं या बिलकुल ही साधारण से लगते हैं, अथवा मन की उस अभिवृत्ति से संबंधित हैं, जिसके अनुसार प्रत्येक कर्त्तव्य का पालन किया जाना चाहिए। सुधारवादी ईसाई धर्मसंघ (चर्चों) के लेखन और व्याख्यानों में भी साधारण मनुष्यों के आचरण सम्बंधी कर्त्तव्यों का विधायक तत्त्व एवं सद्गुण तथा अधिकांश निषेधात्मक नियम भी तत्त्वतः अपरिवर्तित ही रहे। मात्र संन्यास मार्ग का पूरी तरह से निरसन कर दिया गया था और ईसाई आचरण के नैतिक आदर्श को संसार .. की निस्सारता की धारणा से मुक्त कर दिया गया था। यद्यपि पहले ईसाई धर्म में संन्यास

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