Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha Author(s): Henri Sizvik Publisher: Prachya Vidyapeeth View full book textPage 7
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 05 प्राक्कथन इस छोटे से ग्रंथ का मूल स्वरूप, नीतिशास्त्र पर लिए गए उस लेख में ही बन गया था, जिसे मैंने कुछ वर्ष पूर्व इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के लिए लिखा था। जिनकी बात का मेरे लिए कुछ वजन है, उन विचारकों के विचारों में मैंने यह पाया कि यह लेख उन अंग्रेज अध्येताओं की आवश्यकता की पूर्ति करता था, जो कि नैतिक विचारों के इतिहास का सामान्य ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। इसलिए मैंने 'इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका' के प्रकाशक मेसर्स ब्लेक से अनुमति प्राप्त करके इसका अलग से एक पुस्तक के रूप में पुनर्मुद्रण करवा दिया। ऐसा करते समय मैंने इसे बहुत कुछ परिवर्तित एवं परिवर्द्धित किया है, किंतु कुछ संकोच के बाद भी मेरे मूल लेख की मुख्य रूपरेखा को वैसी ही बनाए रखने का निश्चय किया। जिसके अनुसार अध्याय 5 को मुख्यतः आधुनिक युग के आंग्ल नीतिशास्त्र तक ही सीमित रखा गया है और विदेशी नीति-दर्शनों पर केवल उनके आंग्ल विचार धाराओं पर पड़े प्रभाव के आधार पर गौण रूप से ही विचार किया गया है। अंशतः मैंने ऐसा इसलिए किया कि मेरे लेख की विशिष्टता (यदि उसमें कोई विशिष्टता है तो) नैतिक चिंतन की गतिविधियों की एक निश्चित सघन एकता में निहित है और यदि मैं इस अध्याय में अंग्रेज नीतिवेत्ताओं के समान ही जर्मन और फ्रांसीसी नीतिविवेचनों के विचारों को भी सम्मिलित करता, तो यह एकता अनिवार्य रूप से नष्ट हो जाती। इसके साथ ही मैंने जिन बातों की विवेचना को छोड़ दिया है, जिसका बहुत कुछ उस बात से सम्बंधित है। भाग' जिनके कारण बौनीफोस ऋषभ की मृत्यु के पश्चात् ईसाई धर्मसंघ (चर्च) को नैतिक पतन के दौर से गुजरना पड़ा था। उस समय ईसाई धर्मसंघ (चर्च) में ऐसी केंद्रीय सत्ता की कमी थी, जो कि इन तीव्र मतभेदों का निवारण कर सकती थी। इन मतभेदों के कारण जनसाधारण अनिश्चयात्मक स्थिति में होता था और स्वाभाविक रूप से वह किसी भी धार्मिक एवं परम्परानिष्ठ लेखक की उसी धारणा को स्वीकार कर सकता था, जो कि उसे पालन करने की दृष्टि से सुविधाजनक प्रतीत होती। इसी प्रकार एक निर्बल नैतिक चेतना किसी भी नैतिक नियम के वांछित अपवाद के लिए सूक्ष्मता से शास्त्र (श्रुति) के प्रमाण को खोजने की दिशा में प्रवृत हुई। यद्यपि कैथोलिक चर्च के द्वारा संसार पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किए जाने वाले संघर्ष के दौरान अब शास्त्र की आज्ञाओं के पालन के सिद्धांत को वैयक्तिक निर्णयों पर विश्वास करने के सिद्धांत के साथ एक गहन एवं दीर्घकालिक, किंतुPage Navigation
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