Book Title: Nijdosh Darshan Se Nirdosh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 11
________________ प्रकृति को जो निर्दोष देखता है वह परमात्मा! देखने में मुक्तानंद! पर आत्मा को आनंद की भी पड़ी नहीं है। उसे तो केवल जैसा है वैसा देखने में सर्वस्व है! दोष से अंतराय और अंतराय से संपूर्ण आनंद का अनुभव रुकता परम पूज्य दादाश्री, अपनी अनुभव दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हमें तो बाल जितनी भी भूल हो तो तुरन्त पता चल जाता है!' वह अंदर कैसी कोर्ट होगी?! कैसा जजमैन्ट होगा? किसीके साथ मतभेद ही नहीं। गनहगार दिखे, फिर भी उसके साथ कोई मतभेद नहीं! बाह्य रूप से गुनहगार, अंदर तो कोई भी गुनाह नहीं है। इसीलिए दादाश्री संपूर्ण निर्दोष हुए और सारे जगत् को निर्दोष देखा! ज्ञानी पुरुष की एक भी स्थूल या सूक्ष्म भूल नहीं होती! सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भूलें ही होती हैं, जिनके खुद संपूर्ण ज्ञाता-दृष्टा होते हैं और वे भूलें किसीको नुकसानदायक नहीं होती हैं। सिर्फ खुद के 'केवलज्ञान' को ही वे रोकती हैं! अंतिम प्रकार की जागृति कौन-सी? इस जगत् में कोई दोषित ही नहीं दिखे! जिसने सारी भूलें खतम की, उसका इस जगत् में कोई ऊपरी ही नहीं रहा! इसीलिए ज्ञानी पुरुष देहधारी परमात्मा ही कहलाते हैं। दादाश्री कहते हैं, 'हम' दोनों अलग हैं। भीतर प्रकट हुए हैं वे 'दादा भगवान' हैं। वे संपूर्ण प्रकट हो गए हैं, परम ज्योति स्वरूप! जो हमें हमारी भी अंदरवाली भूलें दिखाते हैं और वे ही चौदह लोक के नाथ हैं। वही दादा भगवान हैं! ३६० डिग्री के पूर्ण भगवान!' पुद्गल दृष्टि से नहीं! तत्त्व दृष्टि से, अवस्था दृष्टि से नहीं! सामनेवाले को दोषित देखता है, वह अहंकार है देखनेवाले का! दुश्मन के प्रति भी भाव नहीं बिगड़े, बिगड़े, तो तुरंत ही प्रतिक्रमण से सुधार लिया जाए, तभी आगे प्रगति होती है और अंत में शीलवान हो पाते हैं। शुरूआत में बुद्धि सामनेवाले को निर्दोष नहीं देखने देगी पर निर्दोष देखने की शुरूआत करनी है। फिर जैसे-जैसे अनुभव होता जाएगा वैसेवैसे बुद्धि ठंडी होती जाएगी। जैसे गणित का सवाल करते समय जवाब पाने के लिए एक संख्या माननी पड़ती है, 'माना कि १०० (सपोज़ हंडेड) फिर सही जवाब सही मिलता है न?! वैसे दादाश्री भी एक संख्या 'मानने' को कहते हैं कि, 'इस जगत् में कोई दोषित ही नहीं है। समस्त जगत् निर्दोष है!' सच्चा जवाब अंत में मिल जाएगा। दृष्टि, वैसी सृष्टि । दोषित दृष्टि से सामनेवाला दोषित दिखता है और निर्दोष दृष्टि से सामनेवाला निर्दोष दिखता है। ज्ञान मिलने के बाद भी जगत् निर्दोष है, वह अनुभव में नहीं आता। वहाँ तो दादाश्री ने कहा है इसलिए, ऐसा हमें निश्चित कर देना चाहिए कि जिससे कोई दोषित दिखे ही नहीं। जहाँ ऐसा निश्चित नहीं हुआ होगा, उस हिस्से में फिर मान ही लेना कि जगत् निर्दोष ही है! जवाब जानते हैं, इसलिए सवाल हल करना आसान हो जाएगा न! प्रतीति में तो सौ प्रतिशत रखना कि जगत् निर्दोष ही है। दोषित दिखता है, वह भ्रांति है और उससे संसार खड़ा है! जान लिया उसका नाम कि ठोकर नहीं लगे। कषाय, (क्रोध-मानमाया-लोभ) ठोकरें ही हैं! और तब तक भटकना ही है! कषायों का पर्दा दूसरों के दोष दिखाता है! कषाय प्रतिक्रमण से जाते हैं। मोक्ष के लिए कर्मकांड या क्रियाएँ करने की ज़रूरत नहीं है, आत्मा जगत् निर्दोष जगत् निर्दोष किस तरह देखा जा सकता है?! आत्म दृष्टि से ही, 19

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