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निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
ऐसा मानकर आप चलना न? अपना अंतिम स्टेशन है, वह सेन्ट्रल है, ऐसा मानकर हम चलें तो फायदा होता है या नहीं होता? आपको क्या लगता
है?
प्रश्नकर्ता : हाँ, होता है फायदा।
दादाश्री : कोई दोषित है नहीं, ऐसा जानोगे, तभी अन्य सब निर्दोष लगेंगे हमें! क्योंकि हम निमित्त हैं और वे बेचारे भी निमित्त हैं। और हमारे लोग निमित्त को काटते हैं। निमित्त को काटना, ऐसा करते हैं क्या कभी? नहीं काटते, नहीं? निमित्त को काटते हैं?
प्रश्नकर्ता : हम निमित्त को काटते हैं, पर काटना नहीं चाहिए न?
दादाश्री : पराये दोष देखना, उसे हम निमित्त को काटने की स्थिति कहते हैं। अरे। निमित्त को काटा तूने? वह तुझे गालियाँ देता है, वह तेरे कर्म का उदय है। यह उदय तुझे भुगतना है। बीच में वह निमित्त है। निमित्त तो उपकारी है कि भई, तुझे कर्मों में से छुड़वाने आया है। उपकारी है, उसके बदले तू गालियाँ देता है? तू उसे काट खाता है? इसलिए वह, निमित्त को काटा, ऐसा कहलाता है। इसलिए, ये महात्मा डर गए हैं कि नहीं, हम काटेंगे नहीं अब कभी भी!!
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! और अनुमोदन करना। उस अनुमोदन का भी फल आता है। किए बिना फल नहीं आता।
प्रश्नकर्ता : अनुमोदन किसे कहते हैं?
दादाश्री : यदि कोई कुछ करते हुए हिचकिचाता हो तो आप कहो कि, 'तू तेरे कर, मैं हूँ ना।' वह अनुमोदन कहलाता है। और अनुमोदन करनेवाले की अधिक जिम्मेदारी कहलाती है। किए हुए का फल किसे ज्यादा मिलता है? तब कहे, जिसने अधिक बुद्धि इस्तेमाल की, उसके आधार पर वह बँट जाता है।
नहीं चुनौती, तो पूर्णता की प्राप्ति इस जगत् में कोई भी मनुष्य आपका कुछ भी नुकसान करता है, उसमें वह निमित्त है। नुकसान आपका है, इसलिए 'रिस्पोन्सिबल' (जिम्मेवार) आप हो। कोई मनुष्य किसीका कुछ कर सकता ही नहीं है, ऐसा यह स्वतंत्र जगत् है। और यदि कोई कुछ भी कर सकता होता तो 'फीयर' (डर) का कोई पार ही नहीं रहता! तब तो फिर कोई किसीको मोक्ष में ही जाने नहीं देता। तब तो फिर भगवान महावीर को भी मोक्ष में जाने नहीं देते। भगवान महावीर तो कहते हैं कि आपको जो अनुकूल हो, वैसा भाव मुझ पर करना, आपको मुझ पर विषय के भाव आएँ, तो विषय के करो, निर्विषय के भाव आते हैं तो निर्विषय के करो, धर्म के भाव आते हैं तो धर्म के करो, पूज्यपद के आते हैं तो पूज्यपद दो, गालियाँ देनी हों तो गालियाँ दो। मेरी उसके सामने कोई चुनौती नहीं है। जिन्हें चुनौती नहीं है, वे मोक्ष में जाते हैं और चुनौती देनेवाले का यहीं मुकाम रहता है!
नहीं तो यह जगत् तो ऐसा है न कि आपके ऊपर उल्टा या सुल्टा भाव करता ही रहता है। जेब में आप रुपये रख रहे हों और वह किसी जेबकतरे ने देख लिया तो जेब काटने का भाव करता है या नहीं करता? कि रुपये हैं, काट लेने जैसा है। पर उतने में गाड़ी आई और आप बैठ गए और आप चले गए और वह रह गया। पर ऐसा भाव तो करता ही
'यह मुझे ठग गया' ऐसा बोला वह भयंकर कर्म बाँधता है। उसके बजाय दो धौल मार ले तो कम कर्म बंधते हैं। वह तो जब ठगे जाने का काल उत्पन्न होता है, हमारे कर्म का उदय होता है, तभी हम ठगे जाते हैं। उसमें सामनेवाले का क्या दोष? उसने तो उल्टे हमारा कर्म खपा दिया, वह तो निमित्त है।
अनुमोदन का फल प्रश्नकर्ता : दूसरों के दोष का खुद को दंड मिलता है?
दादाश्री : नहीं, उसमें किसीका भी दोष नहीं है। खुद के दोष से ही सामनेवाले निमित्त बनते हैं। यह तो भुगते उसकी भूल। करना, करवाना