Book Title: Nijdosh Darshan Se Nirdosh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 47
________________ ६८ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! कहें, तो छूट जाएँगे। प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा कहें, फिर भी नहीं छूटे तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : यह तो जो दोष बर्फ जैसे हो गए हैं, वे एकदम से कैसे छूटेंगे? फिर भी वे ज्ञेय हैं और हम ज्ञाता, ऐसा संबंध रखें, तो उससे वे दोष छूट जाएँगे। हमारा आधार नहीं होना चाहिए। आधार न मिले तो वह गिर ही जाएगा। यह तो आधार से चीज़ खडी रहती है। निराधार हो जाए, तो गिर जाती है। यह जगत् आधार से खडा हआ है, पर निराधार हो तो खड़ा ही नहीं रहे न। निराधार करना आता नहीं है। वह तो ज्ञानियों के ही खेल हैं! यह जगत् तो अनंत 'गुह्यवाला', उसमें 'गा से गह्य' भाग को किस तरह समझे? दोष होते हैं परतोंवाले वे भूलें फिर ज्ञेय स्वरूप में दिखती है। जितने ज्ञेय दिखते हैं उतनों से मुक्त हुआ जाता है। यह प्याज की परतें होती हैं न, वैसे दोष भी परतोंवाले होते हैं। इसलिए जैसे-जैसे दोष दिखते हैं, वैसे-वैसे उनकी परतें उखड़ती जाती हैं और जब उसकी सारी परतें उखड जाएँ, तब वह दोष जड़-मूल से सदा के लिए बिदा ले लेता है। कुछ दोष एक परतवाले होते हैं। दूसरी परत ही उनकी होती नहीं है, इसलिए उन्हें एक ही बार देखने से चले जाते हैं। अधिक परतोंवाले दोषों को बार-बार देखना पड़ता है और प्रतिक्रमण करें तो जाते हैं और कुछ दोष तो इतने चिकने होते हैं कि उनका बार-बार प्रतिक्रमण करते रहना पड़ता है और लोग कहेंगे कि वही का वही दोष होता है? तब कहे कि भाई ! हाँ पर उसका कारण उन्हें यह समझ में नहीं आता है ! दोष तो परत के समान हैं, अनंत हैं। इसलिए जो सब दिखें और उनके प्रतिक्रमण करे, तो चोखे हो जाते हैं। प्रश्नकर्ता : एक तरफ हम कहते हैं कि ज्ञान क्रियाकारी है और एक तरफ कोई भूल हो जाती है तो उसे निकाली भाव कहते हैं, यह एडजस्टमेन्ट कहलाएगा न? निजदोष दर्शन से... निर्दोष! दादाश्री : वे निकाली बात ही हैं सभी। ये सब बातें ही निकाली हैं। वे न तो ग्रहणीय हैं, न ही त्याग करनी हैं। त्याग में तिरस्कार होता है, द्वेष होता है और ग्रहण में राग होता है और ये तो निकाली बातें हैं सारी! और आपका दोष है, ऐसा आपको क्यों दिखता है! उसका प्रमाण क्या है? चंदूभाई गुस्सा हुए वह आपको पसंद नहीं आता। वह आपको पसंद नहीं आया, वह आपको चंदूभाई का दोष दिखा। ऐसे सारे दिन जो पसंद नहीं आते हों, वैसे सारे दोष आपको दिखाई देने लगे। गुनहगारी पाप-पुण्य की यह जगत् 'व्यवस्थित' है। 'व्यवस्थित शक्ति' हमारी जो गुनहगारी थी, उसे वापस हमारे पास भेजती है। उसे आने देना है और हमें अपने समभाव में रहकर उसका निकाल कर देना है। पिछले जन्म में जो जो भलें की थीं, वे इस जन्म में सामने आती हैं। इसलिए इस जन्म में हम सीधे चले, फिर भी वे भूलें बाधा डालती हैं, उसका नाम गुनहगारी ! यह गुनहगारी दो प्रकार की हैं। हमें फल चढाएँ, वह भी गनहगारी और पत्थर मारें, वह भी गुनहगारी! फूल चढ़े, वह पुण्य की गुनहगारी और पत्थर पड़े, वह पाप की गुनहगारी है। यह कैसा है? पहले जो भूलें की थीं, उनका कोर्ट में केस चलता है और फिर न्याय होता है। जो-जो भूलें की थीं, वो-वो गुनाह भोगने पड़ते हैं। वे भूलें भुगतनी ही पड़ती हैं। उन भूलों का हमें समताभाव से निकाल करना है, उसमें कुछ भी बोलना नहीं है। बोलें नहीं तो क्या होगा? काल आए, तब भूल आएगी और वे भुगते जाने पर निकल जाएगी। उच्च जातियों में यह बोलने से ही तो सारी गुत्थियाँ पड़ी हुई हैं न! इसलिए उन गुत्थियाँ को सुलझाने के लिए मौन रखें तो समाधान आए ऐसा है। 'ज्ञानी पुरुष' ने गुत्थियाँ नहीं डाली हुई थीं। इसलिए उन्हें अभी सब आगे से आगे वैभव मिलता रहता है। और आप सबको अभी इस जन्म में 'ज्ञानी पुरुष' मिल गए हैं। इसलिए पिछली उलझनों का समभाव से

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