Book Title: Nijdosh Darshan Se Nirdosh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 65
________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! १०३ दादाश्री : फिर भी पूरे नहीं दिखते। आवरण रहते हैं न फिर! बहुत दोष होते हैं। हमें, विधि करते समय भी हमसे सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष होते रहते हैं न, जो सामनेवाले को नुकसान नहीं करे ऐसा, पर वह दोष हमसे होता है, वह पता चलता है। तुरन्त हमें उसे साफ करना पड़ता है, चले ही नहीं न? दिखें उतने तो साफ करने ही पड़ते हैं। गेहूँ खुद के ही बीनो न! प्रश्नकर्ता: दूसरों की प्रकृति देखने की जो आदत नहीं हो, उसे क्या कहते हैं? दादाश्री : दूसरों की प्रकृति देखो तो दोष नहीं निकालना चाहिए। समझना है कि 'यह दोष है' पर हमें निकालना नहीं चाहिए। वे अपने खुद के दोष देखना सीखे हैं, तब फिर हमें निकालने की ज़रूरत है? प्रश्नकर्ता: नहीं, वे अपने दोष निकालें तो हमें क्या करना चाहिए? दादाश्री : वे हमारे दोष निकालें और फिर हम यदि उनके निकालने जाएँ तो बढ़ता जाएगा दिनोंदिन उसके बजाय हम बंद कर दें तो किसी दिन उसे विचार आएगा कि 'ये कुछ थकते नहीं हैं, मुझे अकेले को थका हैं।' इससे वे थककर बंद हो जाएँगे। दूसरों का दोष निकालना, वह तो टाइम यूजलेस (बेकार) बिताने जैसा है। खुद के अपार दोषों का ठिकाना नहीं और दूसरों के दोष देखता है। अरे भाई! तू तेरे गेहूँ बीन न । दूसरों के गेहूँ बीनता है और यहाँ घर पर तेरे बगैर बिने हुए ही पीसा करता है! क्या ? प्रश्नकर्ता: पर ऐसा होता है दादा, कि हमारे गेहूँ तो बीने हुए होते हैं, पर हम बीन रहे हों और व्यवहार जिनके साथ हो, तो वे आकर अपनेवाले में फिर बगैर बिने डाल जाते हों और हम कहें कि भाई, ऐसा नहीं करते। दादाश्री : बगैर बिने डालता है कब, कि जब हमारे बीने बगैर के हों, तभी डालता है। वे बीने हुए हों, तो नहीं डालते। वे तो कानून हैं सारे । १०४ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! यह तो इन्द्रियगम्य ज्ञान..... प्रश्नकर्ता: नहीं, पर दादा, हम समभाव से निकाल कर रहे होते हैं किसी वस्तु का कि, 'भाई! यह वस्तु अच्छी नहीं है, कि इससे इसमें क्लेश होता है, कि इसमें इसके कारण व्यवहार बिगड़ता है।' पर सामनेवाला समभाव से निकाल करने के बजाय ऐसा कहे कि, 'मैं तो ऐसा ही करूँगा । तुझसे बने वह कर ले।' तो फिर वहाँ किस तरह व्यवहार करना चाहिए? दादाश्री : ऐसा है न, यह सब बुद्धि की शरारत है। जहाँ परिणाम ही, जो परिणाम बदले नहीं, वहाँ देखते रहना कि परिणाम क्या आता है वह ! सामनेवाले की प्रकृति देखते रहना है। अब यह शरारत कौन करता है ? प्रश्नकर्ता: पुद्गल ? दादाश्री : बुद्धि । नहीं तो परिणाम तो सब जो हैं उन्हें देखते रहना है हमें देखा तो हम आत्मा हो गए और यदि दोषों को देखोगे तो प्रकृति हो जाओगे। प्रश्नकर्ता: दादा, लोग ऐसा कहते हैं कि, 'हम तो आपकी प्रकृति की भूल निकालते हैं और हम 'उसे' देखते हैं कि यह आपकी भूल निकालता है।' दादाश्री : नहीं, भूल निकालनेवाला देख नहीं सकता और देखनेवाला भूल निकालता नहीं। ये तो कानून होते हैं न? ! प्रश्नकर्ता: मतलब आप कहते हैं कि, भूल निकालकर कहें कि 'हम देखतें हैं, हम भूल निकालते है, देट मीन्स (उसका मतलब )... दादाश्री : कोई भूल निकालनेवाला देख नहीं सकता है और देखनेवाला हो तो भूल निकाल नहीं सकता। उस देखने में और इस देखने में फर्क है। वह इन्द्रिगम्य देखनेवाला और यह अतिन्द्रिय है, यह ज्ञानगम्य देखनेवाला है। इसलिए उसे 'देखा' नहीं कहा जा सकता।

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