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निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
उससे अंतराय...
प्रश्नकर्ता : संपूर्ण आनंद कब बरतता है? सब दोष जाने के बाद ही न?
दादाश्री : आनंद तो बरतता ही है। पर दोष हैं, वे अंतराय करते हैं। इसीलिए उसे लाभ नहीं लेने देते। आनंद तो अभी भी है, पर गोठवणी (सेटिंग) करते नहीं है न हम।
संपूर्ण दोष रहित दशा दादा की खुद के दोष देखने में सुप्रीम कोर्टवाला भी नहीं पहुँच पाएँ, वहाँ तो पहँचता ही नहीं है जजमेन्ट । वहाँ तो खुद का इतना भी दोष नहीं देख सकता है। यह तो गाड़ियाँ भर-भर के दोष जाते रहते हैं। यह तो स्थूल आवरण ज्यादा हैं। इसलिए दोष दिखते नहीं हैं। और इतना, ज़रा-सा बाल जितना दोष होता है न, तुरन्त पता चल जाता है कि यह दोष हुआ। यानी वह कैसी कोर्ट होगी अंदर? वह जजमेन्ट कैसा? फिर भी किसीके साथ मतभेद नहीं है। गुनहगार के साथ भी मतभेद नहीं है। दिखता जरूर है गुनहगार, फिर भी मतभेद नहीं है। क्योंकि वास्तव में वह गुनहगार है ही नहीं। वह तो 'फ़ॉरेन' में गुनहगार है. और हमें तो 'होम' के साथ लेना-देना है। इसलिए हमें मतभेद होता नहीं है न!
दादा के स्थूल-सूक्ष्म दोनों दोष चले गए हैं। दूसरे जो सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष रहे हैं, वे जगत् को बिलकुल हानिकारक या लाभदायक नहीं होते हैं। जगत को स्पर्श नहीं करें, ऐसे दोष होते हैं। स्थल दोष यानी आप मेरे साथ चारेक महीने रहो न, तब भी आपको एक भी दोष नहीं दिखे, चौबीस घंटे रहो तो भी।
ये नीरुबहन हैं, वे निरंतर सेवा में रहते हैं, पर एक दोष उन्हें नहीं दिखता है। उन्हें निरंतर साथ ही रहना होता है। यदि ज्ञानी पुरुष में दोष है, तो जगत् निर्दोष किस तरह से हो सकता है?
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! जागृति भूलों के सामने, ज्ञानी की हमारी जागृति 'टोप' पर की होती है। आपको पता भी न चले, पर आपके साथ बोलते समय जहाँ हमारी भूल होती है, वहाँ हमें तुरन्त पता चल जाता है और तुरन्त उसे धो डालते हैं। उसके लिए यंत्र रखा हुआ होता है, जिससे तुरन्त ही धुल जाता है। हम खुद निर्दोष हुए हैं और पूरे जगत् को निर्दोष ही देखते हैं। अंतिम प्रकार की जागति कौन-सी कि जगत् में कोई दोषित ही नहीं दिखे, वह। हमें ज्ञान के बाद हज़ारों दोष रोज़ के दिखने लगे थे। जैसे-जैसे दोष दिखते जाते हैं, वैसे-वैसे दोष घटते जाते हैं और जैसे दोष घटते हैं, वैसे जागृति बढ़ती जाती है। अब हमारे केवल सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष बचे हैं, जिन्हें हम 'देखते हैं और 'जानते' हैं। वे दोष किसीको बाधारूप नहीं होते, पर काल के कारण वे अटके हैं। और उससे ही ३६० डिग्री का 'केवलज्ञान' रुका हुआ है। और ३५६ डिग्री पर आकर रुक गया है! पर हम आपको पूरा ३६० डिग्री का 'केवलज्ञान' एक घंटे में ही देते हैं, पर आपको भी वह पचेगा नहीं। अरे, हमें ही नहीं पचा न! काल के कारण चार डिग्री कम रह गया है! अंदर पूरा-पूरा ३६० डिग्री रियल है और रिलेटिव में ३५६ डिग्री है। इस काल में रिलेटिव पूर्णता तक जाया जा सके, वैसा नहीं है। पर हमें उसमें हर्ज नहीं है। क्योंकि अंदर अपार सुख बरतता रहता है।
इसलिए 'हमारा' नहीं है ऊपरी कोई? जिसे जितनी भूलें नहीं दिखतीं, उसको उतनी वे भूलें ऊपरी हैं। जिसकी सभी भूलें खतम हो जाएँ, उसका कोई ऊपरी ही नहीं। मेरा कोई ऊपरी है ही नहीं, इसीलिए मैं सबका ऊपरी हूँ, ऊपरी का भी ऊपरी ! क्योंकि हम में स्थूल दोष तो होते ही नहीं हैं। सूक्ष्म दोष भी चले गए हैं। सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष होते हैं, उनके हम संपूर्ण ज्ञाता-दृष्टा होते हैं। भगवान महावीर भी यही करते थे।
इसलिए 'ज्ञानी' देहधारी परमात्मा ज्ञानी पुरुष में देखी जा सकें, वैसी स्थूल भूलें नहीं होती हैं। इन