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निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
१३१ उसे भी निर्दोष देखा था!
किसीका दोष तो निकालने जैसा जगत् में है ही नहीं। हम कभी भी किसीका दोष निकालते नहीं है। किसीका दोष होता भी नहीं है। भगवान ने भी निर्दोष देखे हैं। तब फिर हम दोष निकालनेवाले कौन? उनसे भी अधिक समझदार हैं क्या? भगवान से भी समझदार?! भगवान ने भी निर्दोष देखे हैं।
जगत् में किसीको दोषित देखा नहीं. उसका नाम महावीर। और महावीर का खरा शिष्य कौन कि जिसे लोगों के दोष दिखने कम होने लगे हैं। संपूर्ण दशा तक नहीं होता है, पर दोष दिखने कम होने लगे हैं।
अभेद दृष्टि होने से बने वीतराग
ये आपको दोषित दिखते हैं उसका कारण क्या है कि आपकी दृष्टि विकारी हो गई है। मेरा-तेरा की बुद्धिवाली है। यह मेरा और यह तेरा, ऐसी मेरा-तेरा के भेदवाली है! जब तक दोषित दिखता है, तब तक कुछ भी प्राप्त नहीं किया है। हमें किसीके साथ जुदाई नहीं है। अभेद दृष्टि हुई, वह भगवान कहलाता है। यह हमारा और यह आपका, वे सामाजिक धर्म होते हैं सारे। इन सामाजिक धर्मों ने तो उलझनें खड़ी की हैं, और धर्म पालते जाते हैं और चिंता बढ़ती जाती है।
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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! 'तेरा गलत है' ऐसा तो किसलिए हम कहते हैं कि आपको समझाने के लिए, यह दूसरे लोगों की बात करते हैं। दूसरे लोगों की टीका करने के लिए बात नहीं करनी है। टीका होती ही नहीं है किसी जगह पर और यदि टीका है तो वीतराग का विज्ञान नहीं है। वहाँ धर्म है ही नहीं, अभेदता है ही नहीं।
यह फलाने संप्रदाय का हो या यह फलाने संप्रदाय का हो, पर किसीकी टीका नहीं। भगवान क्या कहते हैं? निष्पक्षपाती को हम पछे कि साहब, आपका क्या कहना है? ये लोग हमें अंधे लगते हैं। तब कहे, वह आपकी दृष्टि में चाहे जो हों, पर वे अपनी जगह पर सच्चे हैं। तब कहे, चोर चोरी करता है वह? तो वे अपनी जगह पर सच्चे हैं। आप किसलिए अक्लमंदी करते हो? आप केवल उसे निर्दोष दृष्टि से देखो। आपके पास यदि निर्दोष दृष्टि हो, तो उससे आप देखो। नहीं तो दूसरा कुछ देखना मत!
और दूसरा देखोगे तो मारे जाओगे। जैसा देखोगे वैसा हो जाएगा। जैसा देखोगे वैसे आप बन जाओगे। क्या गलत कहते हैं? ये वीतराग सयाने हैं न, ऐसा आपको लगता है न!
यहाँ तो ये वैष्णव धर्म के लोग वीतराग का धर्म प्राप्त करने आए हैं, तब उन्हें लगा कि वीतराग ऐसे थे! तब मैंने कहा, ऐसे थे वीतराग। तब कहे, ऐसा तो सुना ही नहीं था मैंने ! इसीलिए इस मंदिर में आते हैं न, सीमंधर स्वामी के दर्शन करते हैं न, उल्लासपूर्वक!
प्रश्नकर्ता : यह तो आपने बहुत बड़ी बात कही, 'जैसा देखोगे वैसा बन जाओगे।'
दादाश्री : हाँ, वैसा देखोगे तो आप उस रूप हो जाओगे। इसीलिए मैंने दूसरा कुछ कभी भी देखा नहीं है। दोषित देख ही नहीं सकते। स्वरूप जो उल्टा दिखता है, हमें उसे पलट देना चाहिए कि ऐसा क्यों दिखा?
आज का दर्शन और गत भव का रिकॉर्ड हमें जगत् पूरा निर्दोष दिखता है। पर वह श्रद्धा में है। श्रद्धा में यानी
गच्छ-मत की जो कल्पना... बाकी यह कृपालुदेव ने कहा है कि 'गच्छ-मत की जो कल्पना, वह नहीं सद्व्यवहार।'
कल्पना वह कल्पना ही नहीं है, पर वही है जो आवरण स्वरूप बन गया है। फिर भी भगवान ने उसे धर्म कहा है। वह उसकी जगह पर धर्म में ही है। आप अक्लमंदी मत करना, वह जो कर रहा है वह उसकी जगह पर धर्म में ही है। इसीलिए आप अक्लमंद मत बनना। तेरा गलत है. ऐसा किसीको कभी भी नहीं कहना चाहिए। उसका नाम - निष्पक्षपात।