Book Title: Nijdosh Darshan Se Nirdosh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 64
________________ १०२ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! दादाश्री : हाँ, करना वही बंधन! कुछ भी करना, वह बंधन है। माला फिराई, 'मैंने किया' इसलिए बंधन। पर वह सभी के लिए नहीं है। बाहरवालों के लिए मैं कहूँगा कि माला फिराना। क्योंकि उनके वहाँ वह व्यापार है उनका। दोनों के व्यापार अलग हैं। प्रश्नकर्ता : खुद की प्रकृति दिखाई देने लगी है, सब कुछ दिखता है, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सब दिखता है पर उसकी स्टडी किस तरह करनी? उसके सामने ज्ञान कैसे काम करना चाहिए? कैसी जागृति रहनी चाहिए? निजदोष दर्शन से... निर्दोष! १०१ चलेगा।' उसे शुद्ध फूड देना है। अशुद्ध फूड से यह दशा हुई है, इसलिए शुद्ध फूड से इसका निबटारा लाने की ज़रूरत है। प्रश्नकर्ता : वह कुछ आड़ा-टेढ़ा करे, तो प्रतिक्रमण करने को कहना पड़ेगा? दादाश्री : हाँ, वह सब कहना पड़ेगा। आप नालायक हो' कहें। ऐसा भी कह सकते हैं। अकेले चंदभाई के लिए. अन्य के लिए नहीं। क्योंकि आप की फाइल नंबर वन, आप की खुद की, दूसरों के लिए नहीं। प्रश्नकर्ता : यानी फाइल नंबर वन दोषित हो तो उसे दोषित माने, उसे डाँटें? दादाश्री : सभी तरह से डाँटना। प्रिज्युडिस भी रखना उसके प्रति कि, 'तू ऐसा ही है, मैं जानता हूँ।' उसे डाँटना भी, क्योंकि हमें उसका निबेड़ा लाना है अब! करना नहीं है, मात्र देखना है प्रश्नकर्ता : पर ये दूसरे कोई व्यक्ति हों. फाइल नंबर दसवीं. उसे दोषित नहीं देखना है। वह निर्दोष है ऐसा? दादाश्री : निर्दोष! अरे, अपनी फाइल नंबर टू भी निर्दोष है! क्योंकि गुनाह क्या थे? कि सभी को दोषित देखा और इस चंदूभाई का दोष देखा नहीं। उस गुनाह का रिएक्शन आया यह। यानी गुनहगार पकड़ा गया। दूसरे गुनहगार हैं ही नहीं। प्रश्नकर्ता : वह उल्टा देखा है। दादाश्री : उल्टा ही देखा है। अब सीधा देखा। बात ही समझनी है। कुछ करना नहीं है। वीतरागों की बात समझनी ही होती है. करना नहीं होता कुछ। वीतराग ऐसे समझदार थे! यदि करने का हो तो मनुष्य थक जाए बेचारा! प्रश्नकर्ता : और करे, तो वापिस बंधन आए न? दादाश्री : प्रकृति तो हमें पता ही चल जाती है। उसका हमें पता ही चल जाता है कि प्रकृति ऐसी ही है और कम पता चला हो तो दिनोंदिन समझ बढ़ती जाएगी! पर अंत में 'फुल' समझ में आएगी। इसलिए हमें सिर्फ करना क्या है कि ये चंदूभाई क्या कर रहे हैं, वह हमें देखते रहने की ज़रूरत है, वही शुद्ध उपयोग है। प्रश्नकर्ता : खुद की प्रकृति को देखना होता है, उसमें देख नहीं पाएँ और चूक जाएँ तो वहाँ कौन सी चीज़ काम कर रही होती है? दादाश्री : आवरण। उस आवरण को तोड़ना पड़ेगा वह तो। प्रश्नकर्ता : वह किस तरह टूटे? दादाश्री : अपने यहाँ विधियों से टूटता जाता है दिनों दिन, वैसेवैसे दिखता जाता है। यह तो सब आवरणमय ही था, कुछ दिखता नहीं था, वह धीरे-धीरे दिखने लगा है। वह आवरण देखने नहीं देते हैं सबकुछ। अभी सारे दोष दिखें ऐसे नहीं हैं। कितने दिखाई देते हैं? दस-पंद्रह दिखाई देते हैं? प्रश्नकर्ता : बहुत दिखते हैं। दादाश्री : सौ-सौ? प्रश्नकर्ता : चेन चलती रहती है।

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