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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! छुटकारा नहीं होगा।' तब कहें, 'किस तरह छुटकारा हो?' तब कहें 'जिस अज्ञानता से आपने देखा, उससे हम बंधे आपके साथ और ज्ञान से देखो, तो हम छूट जाएंगे।' इसलिए ज्ञान के द्वारा दोष देखे बिना वह दोष जाएगा नहीं। अज्ञान से बाँधे गए, ज्ञान के द्वारा छूटते हैं। इसलिए हमने देखे। ज्ञान यानी देखना, देखा वह छूट गया। फिर चाहे कैसा भी हो। और फिर भी अक्रम विज्ञान है... क्रमिक में सारा मार्ग समझदारीवाला होता है। छोड़तेछोड़ते आया होता है और यहाँ तो छोड़ते-छोड़ते नहीं आया है। इसलिए किसीको दु:ख हो, ऐसा बोल गए हों चंदूभाई, तो चंदूभाई से कहना कि, 'प्रतिक्रमण करो, क्यों ऐसा करते हो?'
प्रश्नकर्ता : शूट एट साईट, तुरन्त ही?
दादाश्री : हाँ, पूरा दिन नहीं, पर वह तो लगता है हमें कि, 'यह दोष, यह सामनेवाले को दुःख हो ऐसा बोला है' उसका प्रतिक्रमण करना
और वह करते हैं हमारे महात्मा। शुद्धात्मा को प्रतिक्रमण क्या करना? जो अतिक्रमण करता ही नहीं है, उसे प्रतिक्रमण क्या करना? यह तो जिसने किया उसे कहना कि आप करो। पूरा सिद्धांत याद रखना पड़ेगा यह तो।
और रहता भी है, लिखे तो भूल जाए। पूरा सिद्धांत याद रहता है न? हाँ... उनसे उम्र के कारण थोड़ा कम आया जाता है फिर भी सब याद, लक्ष्य में रहनेवाला है सभी। हमें तो काम से काम है न? छूटने से काम है न हमें?
प्रश्नकर्ता : मुझे तो आपकी एक बात बहुत अच्छी लगी थी, औरंगाबाद में बोले थे वह।
दादाश्री : हाँ।
प्रश्नकर्ता : कि मेरे प्रतिक्रमण तो दोष होने से पहले हो जाते हैं। दोष होने से पहले आपके प्रतिक्रमण पहुँचते हैं।
दादाश्री : हाँ, ये प्रतिक्रमण शूट ओन साइट। दोष होने से पहले शुरू ही हो जाते हैं अपने आप। हमें भी पता ही नहीं चलता कि कहाँ से खड़ा हो गया ! क्योंकि जागृति का फल है।
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! आवरण टूटने से दोष दिखें भूलें नहीं दिखती थीं। आत्मा प्रकट नहीं हुआ था, इसलिए भूलें नहीं दिखती थीं। यह तो अब इतनी सारी भलें दिखती हैं, उसका क्या कारण है? आत्मा प्रकट हुआ है।
प्रश्नकर्ता : शरूआत में हमें जब भूलें नहीं दिखती थीं, तब क्या हमें आत्मा प्रकट नहीं हुआ था?
दादाश्री : हुआ था। पर धीरे-धीरे ये भूलें दिखें ऐसा मैं करता था, आवरण तोड़ता था।
जितने दोष उत्पन्न होते हैं, उतने दोष दिखे बिना जाते नहीं, यदि दिखे बिना गए तो यह अक्रमविज्ञान नहीं है। ऐसा यह विज्ञान है। विज्ञान है यह तो!
दोष प्रतिक्रमण से धुलते हैं। किसीके साथ टकराव में आए, इसलिए फिर से दोष दिखने लगते हैं और टकराव नहीं होता तो दोष ढंका हुआ रहता है। पाँच सौ-पाँच सौ दोष रोज़ के दिखाई देने लगें, तो समझना कि अब पूर्णाहुति पास में आ रही है।
प्रश्नकर्ता : पर दादा, यह ज्ञान लेने के बाद, अपनी जागति ऐसी आती है, अपने खुद के दोष दिखते हैं, खूब सारे पाप दिखते हैं और उसकी घबराहट होती है।
दादाश्री : उसकी घबराहट रखने से क्या फ़ायदा? देखनेवाला, होली देखनेवाला मनुष्य जलता है क्या !
प्रश्नकर्ता : ना।
दादाश्री : होली जलती है, पर होली देखनेवाला जलता है क्या ! वह तो चंदूभाई को हो, तब कंधा थपथपाना कि भाई, होता है ऐसा। किया है इसलिए होता है, कहें।
प्रश्नकर्ता : पर वह गर्मी लगती है न दूर से भी, दादा!