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निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
दादाश्री : वह तो जागृति आनी चाहिए।
पूरा दिन माफी माँगते रहना चाहिए। पूरा दिन माफी माँगने की आदत ही डाल देनी चाहिए। पाप ही बंधते रहते हैं। उल्टा देखने की दृष्टि ही हो गई है।
वहाँ पुरुषार्थ या कृपा? प्रश्नकर्ता : भूल दिखे, उसके लिए तो भारी पुरुषार्थ करना पड़ता
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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! निकली थी, यद्यपि विनम्रता दिखाएँ और चिकनी फाइल अधिक उछलती हो तो वहाँ विनम्रता दिखाने की ज़रूरत नहीं है। उल्टा वह अधिक टेढ़ा चलेगा।
दादाश्री : ऐसी कोई जरूरत होती नहीं, पर उसका जवाब निकालना नहीं आता, वह लेवल निकालना मुश्किल है।
प्रश्नकर्ता : इसे किस तरह लेवल में रखें?
दादाश्री : वह तो हर एक मनुष्य ऐसा ही कहता है, सामनेवाले की ही भूल निकालता है न! भूल खुद की ही है, पर मैंने कहा न, कि उनसे विनम्रता नहीं रखनी चाहिए। वीतराग भाव से उनके साथ रहना। सख्ती भी वीतराग भाव से होनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता : पर वह रहना मुश्किल है न? ऐसे किस तरह रह सकते
है?
दादाश्री : पुरुषार्थ नहीं, कृपा चाहिए। पुरुषार्थ से तो यहाँ पर बहुत दौड़धूप करें तब भी कुछ होता नहीं है। पुरुषार्थ की तो इसमें ज़रूरत ही नहीं है। इसलिए यहाँ तो कृपा प्राप्त कर लेनी है! यानी क्या कि दादा को खुश रखना और वे खुश कब होंगे? उनकी आज्ञा में रहें तब! वे इतना ही देखते हैं कि यह आज्ञा में कितना रहता है? फलों का हार लाया या कुछ दूसरा किया वह नहीं देखते, हार का तो थोड़ा लाभ मिलता है। उसमें सांसारिक लाभ मिलता है और इसमें भी थोड़ा लाभ मिलता है!
सारी भूलें मिटाने के लिए या तो यज्ञ (ज्ञानी और महात्माओं की सेवा करनी, ऐसा यज्ञ) करना पड़ेगा अथवा स्व-पुरुषार्थ करना पड़ेगा। नहीं तो ऐसे-वैसे दर्शन कर जाओ तो भक्ति का फल मिलेगा लेकिन ज्ञान का फल नहीं मिलेगा। अपनी दृढ़ इच्छा है कि ज्ञानी की आज्ञा में ही रहना है, तो उनकी कृपा से आज्ञा में रहा जाएगा। आज्ञा पाले, तब आज्ञा की मस्ती रहती है। ज्ञान की मस्ती किसे रहती है कि जो दूसरों को उपदेश देता हो।
यह विज्ञान तो नक़द है, तुरन्त फल देनेवाला है। आप एक घंटा मेरी आज्ञा में रहो तो क्या हो? समाधि हो जाए!
वीतरागभाव से विनम्रता और सख्ती... प्रश्नकर्ता : सत्संग में वह फाइलों का समभाव से निकाल की बात
दादाश्री : अच्छी तरह रह सकते हैं। अपना दोष नहीं हो, तो सभी रह सकता है। अपने दोष हैं, वहाँ पर कुछ भी रहा नहीं जाता। मूल में दोष ही अपना होता है। जो दूसरे पर दोष थोपने फिरता है, उसका ही दोष होता है। यह तो खुद की सेफसाइड खोजते हैं।
ये दूसरे तो अपना ही प्रतिबिंब हैं। कोई हमें कुछ कहता नहीं। अपने ही गुनाह की वजह से कहता है। हर बार आपका ही गुनाह होता है और वह आपका गुनाह समझ में नहीं आता, इसलिए दूसरों का गुनाह देखते हो। और दूसरों का गुनाह देखना, वह सबसे बड़ी अज्ञानता है। हम इतने समय से कह रहे हैं कि सारा जगत् निर्दोष है, और फिर दोष निकालें तो मूर्ख नहीं कहलाएँगे? तुझे नहीं लगता कि यह थियरी वीतराग की है?
प्रश्नकर्ता : एक्जेक्ट वीतराग की थियरी!
दादाश्री : खुद के दोष देखनेवाले मनुष्य जीतकर चले गए, मोक्ष में चले गए। खुद के दोष के बिना तो कुछ भी कोई कहेगा ही नहीं हमें। इसलिए जागृत रहना।