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निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
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ही चलते रहते हैं। उलझन यानी झगड़े चलते ही रहते हैं और एक भी खुद की भूल दिखती नहीं है, यों तो सारा भूलोंवाला ही बहीखाता है! अर्थात् रिलेटिव और रियल का ज्ञान होने के बाद खुद की ही भूलें दिखती हैं। जहाँ देखो, वहाँ खुद की ही भूलें दिखती हैं और है ही खुद की भूल । खुद की भूल से यह जगत् खड़ा रहा है, यह किसी और की भूल के कारण जगत् खड़ा नहीं रहा है। खुद की भूल निकल जाए कि फिर वह सिद्धगति में ही चला जाता है!
जहाँ छूटा मालिकीपन सर्वस्व प्रकार से...
जितने हमें खुद के दोष दिखें, उतने दोष अंदर से कम होते हैं। ऐसे कम होते-होते जब दोषों का थैला पूरा खाली हो जाए, तब आप निर्दोष हो जाएँगे। तब खुद के स्वरूप में आ गए कहलाएँगे ।
अब इसका कब अंत आए? अनंत जन्मों से भटक रहे हैं, दोष तो बढ़ते ही चले हैं। मतलब ज्ञानी पुरुष की कृपा से ही सारा काम हो जाता है। क्योंकि वे खुद मोक्षदाता हैं। मोक्ष का दान देने आए हुए हैं। उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए।
संपूर्ण जागृति बरते, तब खुद की एक भी भूल नहीं होती ! एक भी भूल हो, वह अजागृति है। दोष खाली किए बिना निर्दोष नहीं हो सकते! और निर्दोष हुए बिना मुक्ति नहीं है।
जब दोष रहित हो जाओगे, तब निर्दोष हो जाओगे। नहीं तो फिर यदि थोड़े-बहुत बाकी रहेंगे तो यह स्वामित्व छोड़ दोगे तब निर्दोष हो जाओगे। यह शरीर मेरा नहीं, यह मन मेरा नहीं, यह वाणी मेरी नहीं, तो आप निर्दोष हो सकोगे। पर अभी तो आप मालिक हो न? टाइटल भी (मालिकी) है न?! मैंने तो टाइटल कितने ही समय से फाड़ दिया है! छब्बीस सालों से एक सेकन्ड भी, मैं इस शरीर का मालिक हुआ नहीं हूँ, इस वाणी का मालिक हुआ नहीं हूँ, मन का मालिक हुआ नहीं हूँ । कै कै कै
आत्मदृष्टि होने के बाद....
गरुड़ आते ही, भागें साँप
शास्त्रकारों ने एक उदाहरण दिया है कि भाई, इस चंदन के जंगल में केवल साँप ही साँप होते हैं। उस पेड़ से लिपटकर सब बैठे ही होते हैं ठंडक में। चंदन के पेड़ों से लिपटकर, उसके जंगल में पर एक गरुड़ आए कि सब भागम्भाग-भागम्भाग होती है, उसी प्रकार यह मैंने गरुड़ रख दिया है, सारे दोष भाग जाएँगे। शुद्धात्मा रूपी गरुड़ बैठा है। इसलिए सारे दोष भाग जानेवाले हैं। और 'दादा भगवान' का आशीर्वाद है, फिर उसे क्या भय! मेरे साथ 'दादा भगवान' हैं, तो 'मुझे' इतनी सारी हिम्मत है, तो आपको हिम्मत नहीं आएगी?
प्रश्नकर्ता : हिम्मत तो पूरी-पूरी आती है !
निष्पक्षपाती दृष्ट
दादाश्री : 'स्वरूपज्ञान' बिना तो भूल दिखती नहीं है। क्योंकि 'मैं ही चंदूभाई हूँ और मुझ में कोई दोष नहीं है, मैं तो सयाना - समझदार हूँ, ' ऐसा रहता है और ‘स्वरूपज्ञान' की प्राप्ति के बाद आप निष्पक्षपाती हुए, मन-वचन-काया पर आपको पक्षपात नहीं रहा। इसलिए खुद की भूलें, आपको खुद को दिखती हैं। जिसे खुद की भूल पता चलेगी, जिसे प्रतिक्षण अपनी भूल दिखेगी, जहाँ-जहाँ हो वहाँ दिखे, नहीं हो वहाँ नहीं दिखे, वह खुद 'परमात्मा स्वरूप' हो गया! 'वीर भगवान' हो गया !!! 'यह' ज्ञान प्राप्त करने के बाद खुद निष्पक्षपाती हो गया, क्योंकि 'मैं चंदूभाई नहीं, मैं शुद्धात्मा हूँ' यह समझने के बाद ही निष्पक्षपाती हो पाते हैं। किसीका ज़रासा भी दोष दिखे नहीं और खुद के सभी दोष दिखें, तभी खुद का कार्य पूरा हुआ कहलाता है। पहले तो 'मैं ही हूँ' ऐसा रहता था, इसलिए