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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! पीसा नहीं और पहले पुराना पीसा हुआ था, वह भी उड़ा दिया बार-बार पीसकर! ऐसे तो सारा पीसा हुआ उड़ जाएगा न सब! नया पीसा हुआ तो कहाँ गया, पर पुराना पीसा हुआ था, उसे फिर पीसने को लिया और उड़ा दिया! कुछ भी हाथ में नहीं रहा। यह मनुष्यपन दिखता है न, वह दो पैरों के बजाय चार पैर हों ऐसा है। बोलो कितना नफा हुआ?
दृष्टि, अभिप्राय रहित दोष देखना बंद कर दो न!
प्रश्नकर्ता : यदि दोष नहीं देखें तो दुनिया की दृष्टि से हम एक्सेस फूल (अधिक मूर्ख) नहीं लगेंगे?
दादाश्री : मतलब दोष देखने से सफल होते हैं हम?
प्रश्नकर्ता : दोष देखने से नहीं, पर डिस्टिंक्शन करना कि यह मनुष्य ऐसा है, यह मनुष्य ऐसा है।
दादाश्री : नहीं, उसीसे तो जोख़िम है न सारा। वह प्रिज्युडिस (पूर्वग्रह) कहलाता है। प्रिज्युडिस किसीके प्रति रखना नहीं चाहिए। कल कोट चुरा ले गया हो, फिर भी आज चुरा जाएगा, ऐसा हमें नहीं रखना चाहिए। पर हमें सिर्फ कोट सुरक्षित जगह पर रखना चाहिए। सावधानी रखनी चाहिए हमें। पिछले दिन कोट यदि बाहर रखा था तो आज ठिकाने पर रख देना चाहिए। लेकिन प्रिज्युडिस नहीं रखना चाहिए। इससे तो ये दुःख हैं न, नहीं तो वर्ल्ड में दुःख क्यों होते?! और भगवान दु:ख देते नहीं, सब आपके ही खड़े किए हुए दुःख हैं, और वे आपको परेशान करते हैं। उसमें भगवान क्या करें? किसी पर प्रिज्युडिस रखना मत। किसीका दोष देखना मत। यह यदि समझ जाओगे तो हल आ जाएगा।
आप प्रतिक्रमण नहीं करोगे तो आपका अभिप्राय बाकी रहा. इसलिए आप बंधन में आए। जो दोष हुआ उसमें आपका अभिप्राय रहा और अभिप्रायों से मन खड़ा हुआ है। मुझे किसी भी मनुष्य के लिए ज़रा-सा भी अभिप्राय नहीं है। क्योंकि एक ही बार देख लेने के बाद मैं उसके
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! लिए दूसरा अभिप्राय बदलता नहीं हूँ।
संयोगवश कोई मनुष्य चोरी करता हो, वह मैं खुद देखू, तब भी उसे मैं चोर नहीं कहता हूँ, क्योंकि वह संयोगवश है। जगत् के लोग तो जो पकड़ा गया उसे चोर कहते हैं। यह संयोगवश चोर था या हमेशा से चोर था, ऐसी कुछ जगत् को पड़ी नहीं है। मैं तो हमेशा के चोर को चोर कहता हूँ। अभी तक मैंने किसी भी मनुष्य के बारे में अभिप्राय नहीं बदला है। 'व्यवहार आत्मा' संयोगाधीन है और 'निश्चय आत्मा' से एकता है। हमें पूरे वर्ल्ड के साथ मतभेद नहीं है।
प्रश्नकर्ता : वह तो होगा ही नहीं, क्योंकि आपको तो कोई मनुष्य दोषित लगता ही नहीं न, निश्चय से।
दादाश्री : दोषित नहीं लगता, क्योंकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। यह जो दोषित लगता है न वह दोषित दृष्टि के कारण दोषित लगता है! यदि आपकी दृष्टि निर्दोष हो जाए तो दोषित लगेगा ही नहीं कोई!
ऐसे अंत आए उलझनों का उलझनों का 'एन्ड' कब आता है? रिलेटिव और रियल, ये दो ही चीजें जगत् में हैं। ऑल दीज़ रिलेटिव आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट्स और रियल इज द परमानेन्ट। अब परमानेन्ट भाग कितना और टेम्परेरी भाग कितना? उनके बीच लाइन ऑफ डिमार्केशन डाल दें तो उलझनें बंद हो जाती हैं। नहीं तो उलझनें बंद होती नहीं हैं। चौबीस तीर्थंकरों ने वह डिमार्केशन लाइन डाली थी। कुंदकुंदाचार्यजी ने यह लाइन डाली थी और आज हम यह डिमार्केशन लाइन डाल देते हैं कि तुरन्त उसका सब ठीक हो जाता है। रिलटिव और रियल इन दोनों की उलझनों के बीच लाइन
ऑफ डिमार्केशन डाल देते हैं कि यह भाग आपका खद का और यह पराया भाग है। अब पराये भाग को 'मेरा' मानना नहीं, ऐसा उसे समझा दिया कि उसका हल आ गया।
यह तो पराया माल हड़प लिया है। उसकी लड़ाई चलती है, झगड़े