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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! में नहीं आती है। और सामनेवाले की भल तरन्त पता चल जाता है। क्योंकि बुद्धि का उपयोग किया है न! और जिसको बुद्धि का उपयोग नहीं हुआ उसे तो कोई भूल होने का सवाल ही नहीं रहता है न, कोई शिकायत ही नहीं है न! गायें-भैंसे हैं, सब ऐसे अनंत जीव हैं। उन लोगों को कोई शिकायत नहीं है, बिलकुल शिकायत नहीं है।
प्रश्नकर्ता : यह बहुत बड़ी बात निकली कि बुद्धि को स्थिर करनी है। पहले बुद्धि को वहाँ संसार में स्थिर करते थे, वहाँ दोष दिखता था।
दादाश्री : हाँ, बुद्धि को स्थिर करने के लिए साधन चाहिए। तब अंत में खुद गुनहगार नहीं है, ऐसा मनवाते हैं लोग। तो हम कहते हैं, 'वह तो गुनहगार है ही न!' यानी किसी पर थोप देते हैं, पर बुद्धि स्थिर करते हैं किसी जगह पर। इसलिए, बुद्धि यदि स्थिर नहीं हो पाए तो दूसरा क्या करोगे? तब फिर आपको ऐसा कहना चाहिए कि मेरा ही दोष है, ताकि बुद्धि यहाँ स्थिर हो जाए। नहीं तो बुद्धि चली तो भीतर अंत:करण सारा डोलमडोल, डोलमडोल, यहाँ जैसे हुल्लड़ हुआ हो न, वैसा ही। इसलिए बुद्धि स्थिर करनी पड़ती है न? स्थिर न करें, तब तक हुल्लड़ मचने जैसा हो जाता है। अज्ञानी खुद की जिम्मेदारी पर बुद्धि स्थिर करता है और आप लोग खुद की भूल देखने में स्थिर करते हो। और फिर स्थिर करे, तब हुल्लड़ बंद हो गया न! नहीं तो विचारों की परंपरा चलती रहती है भीतर।
यदि ऐसा कहा कि यह उसकी भूल है, तब हमारी बुद्धि स्थिर होती है। फिर आराम से खाना भाता है। पर उसमें से फिर संसार आगे बढ़ता जाता है। हमें संसार निकाल देना है, इसलिए हम कहें कि, 'भूल मेरी है,' तभी बुद्धि स्थिर होगी और फिर खाना भाएगा। बुद्धि स्थिर होनी चाहिए। समझ में आए ऐसी बात है न?
प्रश्नकर्ता : बुद्धि स्थिर होती है, वह बिलकुल समझ में आए ऐसी बात है।
दादाश्री : हाँ, और जब तक बुद्धि अस्थिर है, तब तक खाने नहीं देगी, पीने नहीं देगी, सोने नहीं देगी, कुछ नहीं करने देगी। तब वह मन की
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! चंचलता नहीं है, बुद्धि की चंचलता है। बुद्धि स्थिर हुई कि हल आ गया।
प्रश्नकर्ता : आपने कहा न कि बुद्धि स्थिर होती है, संसार की तरफ या फिर आत्मा की तरफ...
दादाश्री : आप सामनेवाले को दोष दो तो आपकी बुद्धि स्थिर हुई, तब आपको खाने देगी, पीने देगी, सोने देगी सब करने देगी पर सामनेवाले को दोष देने से संसार खड़ा रहेगा। और मैं क्या कहता हूँ कि संसार यदि अस्त कर देना हो तो मूल दोष आपका है, वास्तव में ऐसा है। अब खुद को दोष दिया तो यहाँ भी बुद्धि स्थिर हो जाएगी। बुद्धि को ऐसा नहीं है कि हमारा खुद का दोष निकाले। पर बुद्धि स्थिर होनी चाहिए, बुद्धि को स्थिर किए बगैर चारा नहीं है। ऐसा कहीं शास्त्रों में थोडा लिखा जाता है?
ऐसा है न, इस जगत् का पूरा लेखा-जोखा शास्त्र में नहीं रहा है। पर हम उसे खुला करते हैं कि इस जगत् में कोई दोषित है ही नहीं। ऐसा सब जो दिखता है, मार-काट, खून-खराबा बहुत होता है, चोरियाँ, लुच्चाई जो सब हो रहा है, उसमें कोई दोषित ही नहीं है। वह वास्तविक दृष्टि है। वास्तविक दृष्टि पर से यदि कभी मेल बैठाओ तो आपकी दोष दृष्टि निकल गई कि आप खुदा हो गए, बस! दूसरा कुछ है नहीं!!
___ पाने को मुक्ति, देखे निजदोष जगत् निर्दोष ही है सदा के लिए, साँप भी निर्दोष है और बाघ भी निर्दोष है। साँप और बाघ सब निर्दोष हैं। ये इंदिराजी भी निर्दोष हैं और मोरारजी भी निर्दोष हैं और जसलोकवाले भी निर्दोष हैं, सभी निर्दोष हैं। पर दोष दिखते हैं न? जितने दूसरों के दोष दिखने जितने बंद हो गए, वही मोक्ष की क्रिया। दोष दिखते हैं, वह संसार की अधिकरण क्रिया है। इसलिए, अपना ही दोष, दूसरे किसीका दोष नहीं है। दूसरों के दोष दिखने बंद हो गए, वह मोक्ष की टिकटवाला हो गया। नहीं तो जगत् पूरा, परायों का दोष ही देखता है। यानी खुद के दोष देखने के लिए जगत् है। दूसरों के दोष देखने से ही यह जगत् खड़ा हो गया है। और दूसरों के दोष देखता है कौन? जिसे गुरुत्तम बनना हो वह!