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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! चलती। इसलिए ही खुद की भूल दिखाने के लिए ज्ञानी की जरूरत है। ज्ञानी पुरुष ही ऐसे सर्व सत्ताधारी हैं कि जो खुद को खद की भूल दिखाकर उसका भान करवा देते हैं और तब भूल मिटती है। वह कब होता है? जब ज्ञानी पुरुष से भेंट हो और खुद को निष्पक्षपाती बनाएँ। अपने खुद के लिए भी निष्पक्षता उत्पन्न हो, तब ही काम होता है। स्वरूप का भान जब तक ज्ञानी पुरुष नहीं करवा देते, तब तक निष्पक्षता उत्पन्न नहीं होती। 'ज्ञान' किसीकी भी भूल नहीं निकालता। बुद्धि सबकी भल निकालती है, सगे भाई की भूल निकालती है।
अंधेरे की भूलें यह तो 'ज्ञानी पुरुष' हैं इसलिए खुद को दोष का पता चलता है। नहीं तो उसे खुद को पता ही क्या चले? चला स्टीमर कोचीन की तरफ। कुतुबनुमा बिगड़ गया है, इसलिए कोचीन चला! दक्षिण को ही वह कुतुबनुमा उत्तर दिखलाए! नहीं तो कुतुबनुमा हमेशा उत्तर में ही ले जाता है, उसका स्वभाव है। कुतुबनुमा बिगड़ जाए, फिर 'क्या करे?' और खुद को ध्रुवतारा देखना आता नहीं है।
सबसे बड़ी भूल, वह स्वच्छंद है। स्वच्छंद से तो सारा लश्कर खड़ा है। स्वच्छंद, वही बड़ी भूल है। यानी जरा-सा ऐसा कहा कि, 'उसमें क्या हुआ?' तो हो गया। वह फिर अनंत जन्म बिगाड़ देता है।
'मैं जानता हूँ' वह अंधेरे की भूल तो बहुत भारी है। और ऊपर से 'अब कोई हर्ज नहीं है वह तो मार ही डालता है। ऐसा तो 'ज्ञानी पुरुष' के अलावा कोई बोल ही नहीं सकता कि, 'एक भी भूल नहीं रही।' हर एक भूल को देखकर मिटानी है। सब कुछ अपने दोष से ही बँधा हुआ है। केवल खुद के दोष देखते रहने से छूट सकें ऐसा है। हम' हमारे दोष देखते रहे, इसलिए हम छूट गए। निजदोष समझ में आएँ, तो मुक्त होता जाता है। इसलिए 'ज्ञानी पुरुष' आपकी भूलें मिटा सकते हैं, औरों के बस की बात नहीं है।
हम तुरन्त ही भूल एक्सेप्ट करके, निकाल कर डालते हैं। यह कैसा
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! है कि पहले भूलें की थीं, उनका निकाल नहीं किया इसलिए वही की वही भूलें फिर से आती हैं। भूलों का निकाल करना नहीं आया इसलिए एक भूल निकालने के बदले दूसरी पाँच भूलें कीं।
नहीं उसका ऊपरी कोई प्रश्नकर्ता : पर दादा, प्रत्यक्ष पुरुष के अलावा यह भूल समझ में नहीं आती?
दादाश्री : किस तरह समझ में आए?! उनकी ही भूल नहीं समझ में आती, फिर वह दूसरों की भूल किस तरह निकाले? जिसे ऊपरी की ज़रूरत नहीं है, जिसे कोई भूल दिखानेवाले की ज़रूरत नहीं है, वह अकेला ही भूल निकाल सकता है। बाक़ी दूसरा कोई भूल निकाल नहीं सकता है। जो खुद की तमाम प्रकार की भूलें सभी जानता हो, उसे ऊपरी की जरूरत नहीं है। ऊपरी की कब तक ज़रूरत होती है कि जब तक आप भूलें नहीं देख सकते और कुछ प्रकार की भूलें आपमें रहती हों तो वे आपकी ऊपरी होती ही हैं। और ऊपरीपन कब छूटता है? आपकी एक भी भल आपको जो दिखती नहीं हो. वे सभी दिखती रहें। यह तो नियमपूर्वक की बात है न! आप सबको कम दिखती हैं, इसलिए तो मैं ऊपरी हूँ अभी। आपको दिखने लगें, तो फिर मैं किसलिए ऊपरी होऊँ? इस झमेले में मैं कहाँ पहुँ? मतलब कानन ही दनिया का यह है। जिसे खुद की पूर्ण भूलें दिखेंगी, फिर उसका कोई ऊपरी नहीं रहा। इसलिए हम कहते हैं न कि हमारा कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। उलटे भगवान हमारे वश में हो गए हैं। हमें' तो हर एक भूल, खुद की किंचित् मात्र भूल, केवलज्ञान में दिखनेवाली भूलें भी हमें दिखती हैं। बोलो, अब केवलज्ञान बरतता नहीं है, फिर भी केवलज्ञान में दिखाई देनेवाली भलें दिखती हैं!
दृष्टि निजदोषों के प्रति... यह ज्ञान लेने के बाद बाहर का तो आप देखोगे वह अलग बात है, पर आपके ही अंदर का आप सब देखा करोगे, उस समय आप