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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! या नहीं आता? अब समझ में आया हो कि अरे! यह जरा ज्यादा है। मतलब, खुद की भूल समझ में आ गई है। उसके बाद सेठ आए बाहर से, और उन्होंने कहा कि, 'महाराज, इस शिष्य के साथ इतना क्रोध?' वापिस वहाँ पर नयी तरह की बात कहता है, 'क्रोध करने जैसा है, वह बहुत टेढ़ा है।' अरे! तुझे खुद को समझ में आ गया है कि यह भूल हो गई है और फिर पक्ष लेता है? किस तरह का घनचक्कर है? हमें सेठ को वहाँ पर क्या कहना चाहिए कि 'मुझे भूल समझ में आ गई है। मैं अब फिर से ऐसा नहीं करूँगा।' तब वह भूल मिटेगी।
नहीं तो हम भूल का पक्ष लेते हैं, सेठ आए तब! वह किसलिए? सेठ के आगे आबरू रखने को? अरे! यह सेठ खुद आबरू बगैर का है। इन कपड़ों के कारण लोगों की आबरू है। बाक़ी, लोगों की आबरू ही कहाँ है? इन सब जगहों पर दिखती है?
दस के किए एक! यह जगत् 'रिलटिव' है, व्यावहारिक है। हमसे सामनेवाले को एक अक्षर भी नहीं बोला जा सकता और यदि 'परम विनय' में हों तो कमी भी नहीं निकाल सकते। इस जगत् में किसीकी कमी निकालने जैसा नहीं है। कमी निकालने से क्या दोष बैठता है, उसकी कमी निकालनेवाले को खबर नहीं है।
किसीकी भी टीका करनी मतलब अपना दस रुपये का नोट भुनाकर एक रुपया लाना वह । टीका करनेवाला हमेशा खुद का ही खोता है। जिसमें कुछ भी मिलता नहीं है। ऐसी मेहनत हमें नहीं करनी है। टीका से आपकी ही शक्तियाँ व्यर्थ होती हैं। हमें यदि दिखा कि यह तिल नहीं है रेती ही है, तो फिर उसे पीलने की मेहनत किसलिए करनी चाहिए? टाइम और एनर्जी (समय और शक्ति) दोनों 'वेस्ट' (बेकार) जाते हैं। यह तो टीका करके सामनेवाले का मैल धो दिया और तेरा खुद का कपड़ा मैला किया! वह अब कब धोएगा!
किसीके भी अवगुण नहीं देखने चाहिए। देखने ही हों, तो खुद के
निजदोष दर्शन से... निर्दोष! देखो न! यह तो दूसरों की भूलें देखें, तो दिमाग कैसा हो जाता है। उसके बजाय दूसरों के गुण देखें, तो दिमाग कैसा खुश हो जाता है!
सारे दुःखो का मूल 'खुद' ही! सामनेवाले का दोष किसी जगह हैं ही नहीं, सामनेवाले का क्या दोष! वे तो यही मानकर बैठे हैं, कि यह संसार, यही सुख है और यही बात सच्ची है। हम ऐसा मनवाने जाएँ कि आपकी मान्यता गलत है, तो वह अपनी ही भूल है। लोगों को दूसरों के दोष ही देखने की आदत पड़ी है। किसीके दोष होते ही नहीं हैं। बाहर तो आपको दाल-चावल, सब्जीरोटी सब बनाकर, रस-रोटी बनाकर देते हैं सभी, परोसते हैं, ऊपर से घी भी रख जाते हैं, गेहूँ बीनते हैं, आपको पता भी नहीं चलता। गेहूँ बीनकर पिसवाते हैं। यदि कभी बाहरवाले कोई दुःख देते हों तो गेहूँ किसलिए बीनेंगे? इसलिए बाहर कोई दुःख देते नहीं हैं। दुःख आपका, अंदर से ही आता है।
सामनेवाले का दोष ही नहीं देखें, दोष देखने से तो संसार बिगड़ जाता है। खुद के ही दोष देखते रहना है। अपने ही कर्मों के उदय का फल है यह। इसलिए कुछ कहने को ही नहीं रहा न! ये तो सभी अन्योन्य दोष देते हैं कि आप ऐसे हो, आप वैसे हो, और साथ में टेबल पर बैठकर खाते हैं। ऐसे अंदर बैर बँधता है। इस बैर से दुनिया खड़ी रही है। इसलिए तो हमने कहा कि 'समभाव से निकाल करना।' उससे बैर बंद होते हैं।
नहीं कोई दोषित जगत् में! एक-एक कर्म से मुक्ति होनी चाहिए। सास परेशान करे, तब हर एक समय कर्म से मुक्ति मिलनी चाहिए। तो उसके लिए हमें क्या करना चाहिए? सास को निर्दोष देखना चाहिए कि सास का तो क्या दोष? मेरे कर्म का उदय, इसलिए वे मिली हैं। वे तो बेचारी निमित्त हैं। तो उस कर्म से मुक्ति हुई और यदि सास का दोष देखा, तो कर्म बढ़े। फिर उसे तो कोई क्या करे? भगवान क्या करें?