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निजदोष दर्शन से... निर्दोष! तब आया महावीर के मार्ग में
दोष जब से दिखने लगें न, तब से कृपालुदेव का धर्म समझा कहलाता है। खुद के दोष आज जो दिखते हैं, वे कल नहीं दिखें, कल नयी तरह के दिखें, परसों उनसे भी नयी तरह के दिखें, तब हम समझें कि इसे कृपालुदेव का धर्म समझ में आया हैं और कृपालुदेव के धर्म का यह पालन करता है। खुद के दोष दिखे नहीं, तब तक कुछ भी समझा नहीं है।
निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
प्रश्नकर्ता : आपको कुछ भी नहीं?
दादाश्री : मैं जानता हूँ कि वह किस आधार पर बोलता है! उदयकर्म के आधार पर बोलता है। कोई थोड़े ही मेरी आज्ञा रोकने की इच्छा है? इच्छा ही नहीं होती न? इसलिए उसे गुनाह नहीं लगता है। यह उदयकर्म के आधार पर बोलता है तो उसे मोड़ना पड़ता है हमें। यदि प्रकृति बिफर जाए, वहाँ हमें परहेज कर देना पड़ता है। खुद का अहित तो संपूर्ण करता है, अन्य सभी का भी कर डालता है। बाकी, सरल प्रकृति भूलें करती है, करती ही रहती है। वह तो दुनिया में सब प्रकृतियाँ ही हैं !!
तुझे तेरी भूलें पूरी-पूरी दिखती हैं? प्रश्नकर्ता : हाँ, भूलें तो दिखती हैं।
दादाश्री : एक भी भूल दिखती नहीं तुझे और जितने बाल हैं, उनसे भी ज्यादा भूलें हैं। वह कैसे समझ में आए तुझे?!
प्रश्नकर्ता : वह भूल खानी या नहीं खानी, वह कर्माधीन है न?
दादाश्री : ओहोहो! यह अच्छी खोज करी। देखो न, बच्चे ही हैं न? सभी इतने-इतने बच्चे! बेभानपना!! देखो न, अभी भी भूल खानी या नहीं खानी, वह कर्माधीन है या क्या, अभी तो ऐसा बोलता है !! कुँए में तो गिरता नहीं। वहाँ सँभलकर चलता है। समय आए तो दौड़ता है, वहाँ क्यों कर्माधीनपन बोलता नहीं है? ट्रेन आए उस घड़ी पटरियाँ लाँध जाता है या नहीं? वहाँ क्यों कर्माधीन कहता नहीं है?
खुद के दोष खुद को किस तरह दिखें? दिखेंगे ही नहीं न! क्योंकि जहाँ मोह का साम्राज्य हो, मोह से भरे हुए! मैं फलाँ हूँ, मैं ऐसा हूँ, उसका मोह वापिस! खुद के पद का मोह होता है न? नहीं होता?
प्रश्नकर्ता : बहुत होता है।
दादाश्री : यही है। दूसरा कुछ नहीं है। निंदा करने जैसा नहीं है, पर सब जगह ऐसा ही है।
क्रमिकमार्ग में तो कभी भी खुद के दोष दिखते ही नहीं। 'दोष तो अनेक हैं, पर हमें दिखते नहीं हैं।' ऐसा यदि कहे तो मैं मानूँ कि तू मोक्ष का अधिकारी है, पर जो कहे कि मुझमें दो-चार ही दिखते हैं, वह अनंत दोषों से भरा हुआ है और कहता है कि दो-चार ही हैं। मतलब, तुझे दोचार दोष ही दिखते हैं, इसलिए इतने ही तुझमें दोष हैं, ऐसा तू मानता है?
महावीर भगवान के मार्ग को प्राप्त किया कब कहलाता है? जब रोज़ खुद के सौ-सौ दोष दिखें, रोज़ सौ-सौ प्रतिक्रमण होते हों, उसके बाद महावीर भगवान के मार्ग में आया कहलाता है। स्वरूप का ज्ञान' तो अभी उसके बाद कितना ही दूर है। पर यह तो चार पुस्तकें पढ़कर 'स्वरूप' पाने का कैफ लिए घूमता है। यह तो 'स्वरूप' का एक छींटा भी पाया नहीं कहलाता है। जहाँ 'ज्ञान' रुका हुआ है, वहाँ कैफ ही बढ़ता है। कैफ के कारण ज्ञानावरण और दर्शनावरण खिसकना रुक गया है। मोक्ष में जाने के लिए दूसरी एक भी वस्तु बाधक नहीं है। सबसे बड़े भयस्थान, वे स्वच्छंद और कैफ हैं।
नहीं देखे खुद के ही दोष
खुद के दोष दिखते हैं आपको?
प्रश्नकर्ता : वही खुद के दोष खोजने की ही ज़रूरत है हमें। दादाश्री : हाँ, तो किस कारण से दिखते नहीं हैं वे?