Book Title: Nijdosh Darshan Se Nirdosh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 25
________________ २४ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! दादाश्री : इसलिए उससे जीवित रहा है। मुझे भी ऐसा हुआ था, इसलिए फिर मैंने खोज की थी। यानी ये सभी चीजें होती हैं, फिर भी अंदर उसके लिए अलग। हुक्का पीता था, फिर भी अंदर अलग, चाय पीता था फिर भी अंदर अलग। परवश करनेवाली वस्तुएँ हमें नहीं होनी चाहिए। फिर भी परवश हो गए तो अब कैसे छूटना, उसका उपाय हमें जानना चाहिए। उपाय जान लिया, तब से हम अलग ही हैं। इसलिए थोड़े समय में छोड़ देना ही है, यह छूट ही जानेवाला है। अपने आप छूट जाए उसका नाम छूटा कहलाता है। अहंकार करके छोड़ें, वह कच्चा रहता है, तो अगले भव में फिर आता है। उसके बजाय समझ से छोड़ने जैसा है। यानी जिसको जो आदत हो, तो यों पत्ते खेलें, अच्छी तरह फर्स्ट क्लास, पर मन में अंदर ऐसा होना चाहिए कि यह नहीं होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए। फिर हजार लोगों के सामने, हम उपदेश दे रहे हों, उस घड़ी कोई आकर कहे, 'अब क्या, पत्ते तो छूटते नहीं हैं और वैसे ही ये करते रहते हो?' तब कहें, 'पत्ते खेलने में हर्ज नहीं है।' ऐसा नहीं बोलते। वहाँ बोल देना कि, 'भाई, हमारी कमजोरी है, ये पत्ते खेलता हूँ तो बस!' प्रश्नकर्ता : हजार लोगों के बीच भूल का इक़रार करना चाहिए? दादाश्री : बस, इक़रार करना चाहिए, तो पत्ते सवार नहीं हो जाएंगे। नहीं तो आप ऐसा कहो कि उसमें कोई हर्ज नहीं है, तो पत्ते जान लेंगे कि यह बेवकूफ मनुष्य है, यहीं रहने जैसा है।' पत्ते खुद ही समझ जाते हैं। यह पोला घर है। इसलिए, हमें इकरार किसी भी समय! आबरू जाए वहाँ भी, आबरू नहीं, नाक कटती हो तो भी इक़रार कर लेना चाहिए। इक़रार करने में पक्का रहना चाहिए। मन वश करना हो, तो इक़रार से होता है। इक़रार करो न, हर एक बात में खद की कमजोरी खली कर दें. तो मन वश में हो जाता है। नहीं तो मन वश होता नहीं है। फिर मन निरंकुश हो जाता है। मन कहेगा. 'रास निजदोष दर्शन से... निर्दोष! आए ऐसा घर है यह !' आलोचना ज्ञानी के पास और दोष हमें कहो न, उसके साथ ही छूट जाता है और हमें कोई उसकी ज़रूरत नहीं है। आपके लिए छूटने का एक रास्ता है यह। क्योंकि वीतरागों के अलावा, दोष और किसी जगह कह ही नहीं सकते। क्योंकि सारा जगत् दोषित ही है। हमें उसमें नवीनता भी नहीं लगती कि यह दोष भारी है या यह हल्का है। ऐसा बोले भी नहीं हमारे पास, फिर भी हमें तो एक जैसा ही लगता है। भूल तो होती है मनुष्य मात्र की, उसमें घबराना क्या? भूल मिटानेवाले हैं वहाँ कहें, मेरी ऐसी भूल होती है। तो वे रास्ता बताते हैं। वैसे-वैसे खिलती जाती है सूझ! भूल मिटेगी, तो काम होगा। भूल मिटेगी किससे? तब कहे भीतर सूझ नाम की शक्ति है। बहुत उलझें, तब सूझ पड़ती है या नहीं पड़ती? फिर ऐसे आराम से बैठ जाएँ, फिर भीतर सूझ पड़ती है या नहीं पड़ती? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : तो कौन देने आता है? सूझ अकेली ही ऐसी शक्ति है जो मोक्ष में ले जाए। जीव मात्र में सूझ नाम की शक्ति होती है। गायें उलझन में पड़ें तब थोड़ी देर खड़ी रहती हैं, चारों तरफ निकलने का रास्ता नहीं होता, तब थोड़ी देर खड़ी रहती हैं, तब अंदर सूझ समझ में आती है और उसके बाद निकल जाती हैं। वह सूझ नाम की शक्ति है, वह विकसित किससे होती है? तब कहें, जितनी भूलें मिटती हैं, उतनी सूझ विकसित होती जाती है। और भूल कबूल की कि भाई, यह भूल मेरी हो गई है, तब से शक्ति बहुत बढ़ती जाती है। थी ही नहीं तो जाए कहाँ से! यह क्रोध किया है, वह गलत किया है, ऐसा समझ में आता है

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