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(४१) कमावी रे ॥ स ॥ घणुं धर्मथी चाली थाडी, निज कुलने लाज लगाडी रे ॥ स० ॥ ७॥ घर समकित रत्न में आएयु, पण स्थिर राखी नवि जाए रे ॥ ॥ स ॥ एक मिथ्यात्वी समकितधारी, ए बेहु में डे अंतर जारी रे ॥ स ॥ ॥ कीहां मंदर सरषव दाणो, कीहां जलनिधिकूप श्रयाणो रे ॥स॥ किहां नृपप्रमदाने दासी, किहां ग्रामीण किहां पुरवासीरे ॥ स ॥ ए॥ किहां अलसिक ने अहि राजा, किहां ढक्का ने घन गाजा रे ॥ स० ॥ किहां मृगपतिने किहां शृगाल, कहां बावल सुरतरु डाल रे॥ स० ॥ १० ॥ किहां वायस ने किहां केकी, किहां अविवेकी ने विवेकी रे ॥ स ॥ किहां दिन करने किहां खजुर्ज, किहां श्रादर ने किहां दूर्ल रे॥ ॥ ११॥ किहां कृपण ने किहां धनदाता, किहां कष्ट अने किहां सुखशाता रे ॥ स ॥ किहां रंक ने किहां पुरराव, किहां शोचना शुद्ध खन्नाव रे ॥ सम् ॥ १२ ॥ किहां रजनी ने किहां दीस, किहां प्रेत ने किहां जगदीश रे ॥ स ॥ किहां मणिरत्न ने किहां लघु चीडी, किहां कुंजर ने किहां कीडी रे ॥ स० ॥ १३ ॥ तिम जगमें समकित सरिखो,
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