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(१२) देश, रूपचंद्र नयर शोलावियुं जी॥ वसती या चीने हो निज नाह पिताने समीप, पवत्तणीए नाम न जणावियु जी॥ का ॥१९॥ दीधी वसति हो तेणे पवत्तणी अवधार, तिहां निवसी नमया सती जी॥ पय वंदण हो थावे नयरना लोक, नवी उलखी केणे एक रती जी ॥ क० ॥ १२ ॥ पुरमाहे हो नली पसरी एहवी वात, साहुणीनो संघाडो आवियो जी ॥ अतिज्ञाता हो तप संजम शुरु विवेक, उप शमथी आतम नावियो जी ॥ क० ॥ १३ ॥ देखी दर्शन हो कीजें आपणां नेत्र पवित्र, एम विजन लोक वातो करे जी ॥ श्रावी पर्षदा हो तिहां दे शना सुणवा काज, कथा उपदेशे नमया तदा जी॥ कम् ॥ १४॥ एक रंगें हो सहु सांजलो बाल गोपाल, थइ रसिया हियडे गहगही जी ॥ कहे मोहन हो अंगणसाउमीढाल,श्रोता रे सुपरें सईहीजी॥०॥१५
॥दोहा॥ - धर्मोद्यम कीजे जविक, धर्म प्रथा प्रसिद्ध ॥ जि नवर धर्म थकी लहे, शछि वृद्धि नव निक ॥१॥कर्म जाल बंधे मुधा, जीव थई अज्ञान ॥ पण मूंशा रहे तेहमां, इंजाल समान ॥२॥ धर्म तणी ब्रांते करी,
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