Book Title: Narmada Sundarino Ras
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 185
________________ (१३) धरे अधर्मने जीव ॥ काच कामली रोगें ग्रहे, शंख विचित्र तदीव ॥३॥ इसतां अथवा क्रोधी, बंध निकाचित कर्म ॥ केम बूटे विण जोगव्यां, साख जरे जिनधर्म ॥४॥ पामे पूरवकर्मथी, सती पण अप वाद ॥ कर्म विपाक ग्रही जतां, केम करिये विषवाद ॥५॥श्रतां पण सती जणी, चोहटे जेह कलंक॥ ते नर विलसे बापडा, जववारिधि निःशंक ॥६॥ ॥ ढाल साठमी॥ कर्म परीक्षा कारण कुमर चल्योजी ॥ए देशी॥ कहे दृष्टांत तिहां धनवती तणो, पति प्रतिबोधवा काज ॥ पोष्यो अनुत रस देशना विषेजी, निसुणी नर नरराय ॥१॥ कर्म कुटिलथी बल नहीं कोर्नु जी, शिवपुर पंथ विशाल ॥ आठ लूटांक ते हेरे हे रणांजी, करी परिकर जंघाल ॥ क०॥२॥ शावस्ती नगरीयें वसतो हुतोरे, व्यवहारी पुण्यपाल ॥ धन वती तेहनी अनोपम अंगना जी, मुख्य सती सुवि शाल ॥क० ॥३॥ अनुक्रमें कंथविदेशे चालतां रे, धनवतीनी तेणीवार ॥ दीधी जलामण आपणा मि त्रनेरे, उपस्थित करण रोजगार ॥ क० ॥४॥ केता दिवस पळी धनवती जणी जी, प्रार्थे कंथमो मित्र । RE www.jainelibrary.org Jain Educationa International For Personal and Private Use Only

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