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(१६७) चन नवि फेरव्यो ॥ हो ॥ व० ॥ १६ ॥ मानीश एहवा मित्र, तणी जो शीखडी ॥ हो ॥ त० ॥ मा गीश सारथवाह, नली तुं जीखडी ॥ हो ॥ ज० ॥ पंचावनमी ढाल, मोहन विजयें कही ॥ हो० ॥ मो० ॥ जे कोश निपुण शिरोमणि, तेणे तो शईही ॥ हो ॥ ते ॥ १७ ॥ सर्व गाथा. ॥
॥ दोहा ॥ वणिक रूपें कहे देवता, सांजव्य तुं धनदत्त ॥ पर उपदेशे कुशल तुं, दीसे ले उन्मत्त ॥१॥ पर्वत पर जलती बहु, नयणे निरखे लोय ॥ पण पयतल बलतां थकां, मूढ न देखे कोय ॥२॥पर अवगु ण राई सरस, करे सुरशैल समान ॥ निज अव गुण मंदर समा, राई करे अयाण ॥३॥ एक वा र तुं ताहरी, गति सामुं तो जोय ॥ त्यार पड़ी पर बूजिये, एम माह्यो शुं होय ॥ ४ ॥ धनदत्त तव नि सुणी करी, कहे तव सुरने एम ॥ शीखामण देता थकां, रीष चढावो केम ॥ ५॥ वचन मांनो जो माहरूं, तो सुखी होउ महाराज ॥ हुँ तो देत माटे कडं, तव बोल्यो सुरराज ॥६॥
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