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( १५५) ॥ ढाल बावनमी ॥
केसर वरणो हो काढी कबो माहरा लाल ॥ ए देशी ॥ सुतने वय हो जनक प्रसन्नो, माहरा लाल ॥ ते सुरलोकें हो तुरत उपन्नो || माहरालाल ॥ कांति अनोपम हो सुरपुर भूषण ॥ मा० ॥ निर्मल देही हो, नहीं को डूषण ॥ मा० ॥ १ ॥ धनदत्त हि यडे हो, ताम विचारे ॥ मा० ॥ कोई गति तातें हो, कृत स्वीकारे ॥ मा० ॥ जग स्थिति दीसे हो, अ रघटमाला ॥ मा० ॥ उपजे विणसे हो, वस्तु विशाला ॥ मा० ॥ २ ॥ पण मुऊ तातनुं हो, विण संजा ब्युं ॥ मा० ॥ दान प्रचारूं हो, कुल यजुवालुं ॥ मा० ॥ जे गयो परधर हो, फेर न यावे ॥ मा० ॥ धनदत्त मनहुं हो, एम समजावे ॥ मा० ॥ ३ ॥ यवनीत लमांहे हो, जे धन हुंतु ॥ मा० ॥ एणे बाहिर हो, कीधुं हुं तुं ॥ मा० ॥ शत्रुकारें हो, ते धन खरचे मा० ॥ उलट अधिको हो, पण नवि विरचे ॥ मा०॥ ॥ ४ ॥ साते देत्रे हो, अति धन वावे ॥ मा० ॥ पूर्ण कमाणी हो, सबल उपावे ॥ मा० ॥ तेणे ना कारो हो, मुखथी न सास्यो | मा० ॥ कृपणपणाने हो, दूर निवारयो ॥ मा० ॥ ५ ॥ वेहेंता जलधि हो,
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