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प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकता। जैन दर्शन किसी भी आगम या शास्त्र को अपौरुषेय नहीं मानता। उसका रचयिता कोई न कोई अवश्य ऐसा व्यक्ति हुआ है, जिस ने वेद व शास्त्र की रचना की। जैन के जितने भी मान्य आगम हैं. उनके रचयिता कौन हए हैं ? इस का विवरण पूर्णतया मिलता है । वर्तमान में जो आगम हैं, उन के रचयिता सुधर्मास्वामी तथा अन्य श्रुतकेवली व स्थविर हैं, जिन के नाम निर्देश मिलते हैं। नन्दी सूत्र भी आगम है।
जैन परम्परा के अनुसार आगम तीन प्रकार के हैं, जैसे कि सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम । इन में से अर्थागम का आगमन सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान से हुआ है। सूत्रागम गणधर कृत हैं । और तदुभयागम उपर्युक्त दोनों से निर्मित है, अर्थात् श्रृंतकेवली व स्वविरों के द्वारा प्रणीत तदुभयागम कहलाता है।
अब दूसरी शैली से आगमों का वर्णन करते हैं-आगम तीन प्रकार के होते हैं अत्तागमे, अनन्तरागमे, परम्परागमे। आत्म और आप्त इन शब्दों का प्राकृत भाषा में अत' शब्द बनता है। जो अर्थ तीर्थंकर भगवान प्रतिपादन करते हैं, वह आगम, आत्मागम या आप्तागम कहलाता है। जो अर्थ तीर्थकर भगवान के मुखारविन्द से गणधरों ने सुना है, वह अनन्तरागम कहलाता है। जो गणधरों ने अर्थ सुनकर सूत्रों की रचना की है, वे सूत्र गणधरकृत होने से आत्मागम या आप्तागम कहलाते हैं । जो सूत्रागम हैं, वे अनन्तरागम भी हैं और आत्म आगम भी।
जो आगमज्ञान उन के शिष्यों में है, वह सूत्र की अपेक्षा से अनन्तरागम है और अर्थ की अपेक्षा परम्परागम । प्रशिष्यों से लेकर जब तक आगामों का अस्तित्व रहेगा, तब तक अध्ययन और अध्यापन किए जाने वाले वे सब परम्परागम कहलाते हैं।
नन्दी सूत्र का अन्तर्भाव तदुभयागमे और परम्परागमे में होता है। उक्त तीनों प्रकार के आगम . सर्वथा प्रामाणिक हैं।
आगमों में अधिकारों का विवरण
श्रुतस्कन्ध-अध्ययनों के समूह को स्कन्ध कहते हैं । वैदिक परम्परा में श्रीमद्भागवत पुराण के अन्तर्गत स्कन्धों का प्रयोग किया हुआ है, प्रत्येक स्कन्ध में अनेक अध्याय हैं । जैनागमों में भी स्कन्ध का प्रयोग किया है, केवल स्कन्ध का ही नहीं, अपितु श्रुतस्कन्ध का उल्लेख है। किसी भी आगम में दो श्रुतस्कधों से अधिक स्कन्धों का प्रयोग नहीं किया। आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ज्ञाताधर्मकथा, प्रश्नव्याकरण और विपाकसूत्र इन में प्रत्येक सूत्र के दो भाग किए हैं, जिन्हें जैन परिभाषा में श्रुतस्कन्ध कहते हैं । पहला श्रुतस्कन्ध और दूसरा श्रुतस्कन्ध, इस प्रकार विभाग करने के दो उद्देश्य हो सकते हैं, अचाराङ्ग में संयम की आन्तरिक विशुद्धि और बाह्य विशुद्धि की दृष्टि से, और सूत्रकृताङ्ग में पद्य और गद्य की दृष्टि से । ज्ञाताधर्मकथा में आराधक और विराधक की दृष्टि से, तथा प्रश्नव्याकरण में आश्रव और संवर . की दृष्टि से, एवं विपाक सूत्र में अशुभविपाक और शुभविपाक की दृष्टि से विषय को दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक श्रुतस्कन्ध में.अनेक अध्ययन हैं और किसी-किसी अध्ययन में अनेक उद्देशक भी हैं।
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