Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Acharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan

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Page 428
________________ भा-प्रविष्टश्रुत अप्पसरणे अप्पसन्नलेस्से, विसमा सुहासणत्थे उवउत्ते समाणे उट्ठाणसुयज्मयणं परियट्टेहतंच एक्कं, दो, वा, तिरिण वा बारे, ताहे से कुले वा, गामे वा, जाव रायहाणी वा श्रोहयमणसंकप्पे विलवन्ते दुयं २ पहावेति उट्ठइ उब्बसति त्ति भणियं होइ त्ति । समुस्थान श्रुत-इस सूत्र के पठन करने से ग्रामादिक में यदि अशान्ति हो तो शान्ति हो जाती है । इसके विषय में चूर्णिकार जी लिखते हैं समुस्थानश्रुतमिति समुपस्थानं-भूयस्तत्रैव वासनं तद्धेतु श्रुतं समुपस्थानश्रुतं, वकारलोपाच्च सूत्रे समुट्ठाणसुयंति पाठः, तस्य चेयं भावना-तो समत्ते कज्जे तस्सेव कुलस्स वा जाव रायहाणीए वा से चेव समणे कयसंकप्पे तुढे पसन्ने, पसन्लेसे समसुहासणस्थे उवउत्ते समाणे समुट्ठाणसुयज्मयणं परियहइ, तं च एक्कं, दो वा, तिरिण वा वारे, ताहे से कुले वा गामें वा जाव रायहाणी वा पट्टचित्ते पसत्थं मंगलं कलयलं कुणमाणे मंदाए गईए सललियं आगच्छइ समुवट्ठिए, पावासइ ति वुत्तं भवइ, समुवट्ठाणसुयं ति बत्तब्वे वकार लोवामो समुट्ठाणसुयंति भणियं, तहा जइ अप्पणावि पुव्वुट्ठियं गामाइ भवइ, तहावि जह से समणे एवं कयसंकप्पे अज्मयणं परियह तो पुणरवि प्रावासेइ ।" नागपरिज्ञापनिका-इस सूत्र में नागकुमारों का वर्णन किया गया है, जब कोई अध्येता विधि. पूर्वक अध्ययन करता है, तब नागकुमार देवता अपने स्थान पर बैठे हुए श्रमण निम्रन्थ को वन्दना नमस्कार करते हुए वरद हो जाते हैं । चूर्णिकार भी लिखते हैं - "जाहे तं प्रामयणं समणे निगन्ये परिय?ह ताहे अकयसंकप्पस्स वि ते नागकुमारा तस्थस्था चेव तं समणं परियाणंति वन्दन्ति नमंसन्ति बहुमाणं च करेन्ति, सिंघनादितकज्जेसु य वरदा भवन्ति ।" कल्पिका-कल्पावतंसिका-इसमें सौधर्म आदि कल्पदेवलोक में तप विशेष से उत्पन्न होने वाले देव, देवियों का सविस्तर वर्णन मिलता है। पुष्पिता-पुष्पचूला-इन विमानों में उत्पन्न होने वाले ऐहिक पारभविक जीवन का वर्णन है। वृष्णिदशा-इस सूत्र में अन्धकवृष्णि के कुल में उत्पन्न हुए दस जीवों से सम्बन्धित धर्मचर्या, गति, संथारा, और सिद्धत्व प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है, इसमें दस अध्ययन हैं। प्रकीर्णक-जो अर्हन्त के उपदिष श्रुत के आधार पर श्रमण निर्ग्रन्थ ग्रन्थों का निर्माण करते हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। भगवान ऋशभदेव से लेकर श्रमण भगवान महावीर तक जितने भी साधु हुए हैं, उन्होंने श्रुत के अनुसार अपने वचन कौशल से, तथा अपने ज्ञान को विकसित करने के लिए, निर्जरा के उद्देश्य से, सर्व साधारणजन भी सुगमता से धर्म एवं विकासोन्मुख हो सकें, इस उद्देश्य से जो ग्रन्थ रचे गए हैं, उन्हें प्रकीर्णक संज्ञा दी गई है। सारांश इतना ही है। तीर्थ में प्रकीर्णक अपरिमित होते हैं। जिज्ञासुओं को इस विषय का विशेष ज्ञान वृत्ति और चूणि से करना चाहिए ।। सूत्र ४४ ॥ अङ्गप्रविष्टश्रुत मूलम्-से किं तं अंगपविट्ठ? अंगपविट्ठ दुवालसविहं पण्णत्तं, तं जहा१- पायारो, २. सूयगडो, ३. ठाणं, ४. समवायो, ५. विवाहपन्नत्ती, ६. नाया

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