Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Acharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan

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Page 457
________________ नन्दीसूत्रम् इसका सम्यक्तया अध्ययन करने वाला तद्रूप-आत्मा, ज्ञाता और विज्ञाता बन जाता है । उपासकदशांग में चरण-करण की प्ररूपणा की गयी है। यह उपाशकदशाश्रुत का विषय है ।सूत्र ५२॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में ७ वें उपासकदशांग का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। श्रमण अर्थात् साधुओं की सेवा करने वाले श्रमणोपासक कहे जाते हैं। दस अध्ययन होने से इसको उपासकदशा कहते हैं या उपासकों की चर्या का वर्णन होने से उपासकदशा कहते हैं। इसमें उपासकों के शीलवत (अणुव्रत) गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का स्वरूप बताया गया है। इसके प्रत्येक अध्ययन में एक-एक श्रावक का वर्णन है। इसमें दस श्रमणोपासकों के लौकिक और लोकोत्तरिक वैभवों का वर्णन है । वे सभी भगवान महावीर के अनन्य धावक हुए हैं। यहां प्रश्न पैदा होता है कि भगवान महावीर के एक लाख, उनसठ हजार १२ व्रती श्रावक थे, फिर अध्ययन दस ही क्यों हैं ? न्यूनाधिक क्यों नहीं ? प्रश्न ठीक है और मननीय है । इसके उत्तर में कहा जाता है कि जिनके लौकिक जीवन और लोकोत्तरिक जीवन में समानता सूत्रकारों ने देखी, उनका ही उल्लेख इस में किया गया है, जैसे कि दसों ही सेठ कोटयावीश थे, राजदरबार में माननीय थे और प्रजा के भी। सभी के पास ५०० हल की जमीन थी, गोजाति के अतिरिक्त अन्य पालतू पशु उनके पास नहीं थे । जितने क्रोड़ व्यापार में धन लगा हुआ था, उतने व्रज गौओं के थे। सभी महावीर के उपदेश से प्रभावित हुए थे, सभी ने पहले ही उपदेश से प्रभावित होकर १२ व्रत धारण किए हैं। सभी ने १५ वें वर्ष . में गृहस्थ धन्धों से अलग होकर पौषधशाला में रह कर धर्माराधना की । जिज्ञासुओं को यह स्मरण रखना चाहिए कि जो आयु लौकिक व्यवहार में व्यतीत हुई, उसका यहां कोई उल्लेख नहीं । जब से उन्होंने १२ व्रत धारण किए हैं, सूत्रकार ने तब से लेकर आयु की गणना की है। १५ वें वर्ष के कुछ मास बीतने पर उन्होंने ११ पडिमाओं की आराधना करनी प्रारम्भ की। सभी का एक महीने का संथारा सीझा । सभी । पहले देवलोक में देव बने । सभी को चार पल्योपम की स्थिति प्राप्त हुई। सभी महाविदेह में जन्म लेकर निर्वाण पद प्राप्त करेंगे। सभी को अपनी आयु के २० वर्ष शेष रहने पर ही धर्म की लग्न लगी इत्यादि अनेक दृष्टियों से उनका जीवन समान होने से दस श्रावकों का ही इसमें उल्लेख किया गया है। अन्य श्रावकों में ऐसी समानता न होने से उनका उल्लेख इस सूत्र में नहीं किया गया है ।शेष वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए ॥सूत्र ५२॥ । ८. श्रीअन्तकृद्दशाङ्गसूत्र मूलम्-से किं तं अंतगडदसायो ? अंतगडसासु णं अंतगडाणं नगराई, उज्जाणाई, चेइआइं, वणसंडाइं, समोसरणाई, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहानो, इहलोइअ-परलोइया इङ्लि-विसेसा, भोगपरिच्चागा, पवज्जासो, परिपागा, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, संलेहणायो, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, अंतकिरिआनो आघविज्जति ।

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