Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Acharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan

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Page 466
________________ द्वादशा-परिचय ३२५ अथ के ते दुःख-विपाका ? दुःख-विसाकेषु दुःखविपाकानां नगराणि, उद्यानानि, वनखण्डानि, चैत्यानि, समवसरणानि, राजानः, माता-पितरः, धर्माचार्याः, धर्मकथाः, ऐहलौकिका-पारलौकिका ऋद्धिविशेषाः निरयगमनानि, संसारभाव-प्रवंचाः, दुःख-परम्पराः, दुष्कुलप्रत्यावृत्तयः, दुर्लभबोधिकत्वमाख्यायते, त एते दुःख विपाकाः । भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया-वह विपाकश्रुत किस प्रकार है ? आचार्य उत्तर में कहने लगे-विपाकश्रुत में सुकृत-दुष्कृत अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के फलविपाक कहे जाते हैं । उस विपाकश्रुत में दस दुःखविपाक और दससुखविपाक अध्ययन हैं। शिष्य ने फिर पूछा-भगवन् ! दुःखविपाक में क्या वर्णन है ? आचार्य उत्तर देते हैं-भद्र ! दुःख विपाकश्रुत में-दुःख रूप विपाक को भोगने वाले प्राणियों के नगर, उद्यान, वनखण्ड, चैत्य-व्यन्तरायतन, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इस लोक और परलोक सम्बन्धित ऋद्धि विशेष, नरक में उत्पत्ति, पुनः संसार में जन्म-मरण का विस्तार, दुःख की परम्परा, दुष्कुल की प्राप्ति और सम्यक्त्वधर्म की दुर्लभता आदि विषय वर्णन किये हैं । यह दुःखविपाक का वर्णन है । टीका-इस सूत्र में विपाकसूत्र के विषय में परिचय दिया है। प्रस्तुत सूत्र में कर्मों का शुभ अशुभ फल उदाहरणों के साथ वर्णित है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं--पहला दुःख विपाक और दूसरा सुखविपाक । पहले श्रुतस्कन्ध में दस अध्ययन हैं, जिनमें अन्याय अनीति का फल, गोमांस भक्षण का फल, मांस भक्षण का फल, अण्डे भक्षण का फल, जो वैद्य-डाक्टर मांस भक्षण को रोगों की औषधी बताते हैं, उनका फल, परस्त्री संग का फल, चोरी करने का फल, वेश्या गमन का फल, इत्यादि विषयों का फल हष्टान्त पूर्वक वर्णन किया गया है। इतना ही नहीं किन्तु इनका फल नरक गमन, संसार भ्रमण, दुःख परंपरा, हीन कुलों में जन्म लेना, दुर्लभबोधि इत्यादि दुष्कर्मों के फल वर्णन किए हैं। इन कथाओं में यह भी बतलाया गया है कि उन व्यक्तियों ने पूर्वभव में किस २ प्रकार और कैसे २ पापोपार्जन किए हैं, और किस प्रकार उन्हें दुर्गतियों में दुःख अनुभव करना पड़ा। पाप करते समय तो अज्ञानतावश जीव प्रसन्न होता है और जब उनका फल भोगना पड़ता है, तब वे दीन होकर किस प्रकार दु:ख भोगते हैं ? इन बातों का साक्षात् चित्र इन कथाओं में खींचा है। अतः यह जिज्ञासुओं को सविशेष पठनीय है। मूलम्-से किं तं सुहविवागा ? सुहविागेसु णं सुहविवागाणं नगराइं, वणसंडाइं, चइआइं, समोसरणाई, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहानो इहलोई पारलोइया इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चागा, पव्वज्जासो, परिपागा, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाई, संलेहणायो, भत्तपच्चक्खाणाई, पापोवगमणाई, देवलो

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