Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Acharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan

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Page 502
________________ द्वादशाङ्ग-परिचय ३६१ ४. पडिपुच्छइ--जहां कहीं सूत्र या अर्थ, ठीक-ठीक समझ में नहीं आया या सुनने से रह गया, वहां थोड़ा-थोड़ा बीच में पूछ लेना चाहिए, किन्तु उस समय उनसे शास्त्रार्थ करने न लग जाए, इस बात का ध्यान रखना चाहिए। ५. वीमंसा-गुरुदेव से वाचना लेते हुए शिष्य को चाहिए कि गुरु जिस शैली से या जिस आशय से समझाते हैं, साथ -साथ ही उस पर विचार भी करता रहे। ६. पसंगपारायणं-इस प्रकार उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करता हुआ शिष्य सीखे हुए श्रुत का पारगामी बनने का प्रयास करे। ७. परिणिट्ठा-इस क्रम से वह श्रुतपरायण होकर आचार्य के तुल्य सैद्धान्तिक विषय का प्रतिपादन करने वाला बन जाता है। उक्त विधि से शिष्य यदि आगमों का अध्ययन करे तो निश्चय ही वह श्रुतका पारगामी हो जाता है । अतः अध्ययन विधिपूर्वक ही करना चाहिए। अध्यापन का कार्यक्रम आचार्य, उपाध्याय या बहुश्रुत सर्वप्रथम शिष्य को सूत्र का शुद्ध उच्चारण और अर्थ सिखाए । तत्पश्चात् उसी आगम को सूत्र स्पर्शी नियुक्ति सहित पढाए । तीसरी बार उसी सूत्र को वृत्ति-भाष्य, उत्सर्ग-अपवाद, और निश्चय-व्यवहार, इन सब का आशय नय, निक्षेप, प्रमाण और अनुयोग आदि विधि . से सूत्र और अर्थ को व्याख्या सहित पढाए । यदि गुरु शिष्य को इस क्रम से पढाए तो वह गुरु निश्चय ही ___सिद्धसाध्य हो सकता है ।अनुयोग के विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्न प्रकार हैं 'सम्प्रति व्याख्यानविधिमभिधित्सुराह-सुतस्थो इत्यादि .१. प्रथमानुयोगः-सूत्रार्थः सूत्रार्थप्रतिपादनपरः, 'खलु' शब्द एवकारार्थः स चावधारणे, ततोऽयमर्थ-गुरुणा प्रथमोऽनुयोगः सूत्रार्थाभिधानलक्षण एवं कर्त्तव्य, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मतिमोहः। २. द्वितीयोऽनुयोगः-- सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रितो भणितस्तीर्थकरगणधरैः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रितं द्वितीयमनुयोगं गुरुविदध्यादित्याख्यात तीर्थकरगणधरैरिति भावः। . - ३. तृतीयश्चानुयोगो निर्विशेषः प्रसक्कानुप्रसक प्रतिपादनलक्षण इत्येषः–उक्तलक्षणो विधिर्भवत्यनु योगे व्याख्यायाम्, प्राह परिनिष्ठा सप्तमे इत्युक्तं यच्चनुयोगप्रकारास्तदेतत्कथम् ? उच्यते, त्रयाणामनुयोगानामन्यतमेन केनचित्प्रकारेण भयो २ भव्यमानेन सप्तवाराः श्रवणं कार्यते ततो न कश्चिद्दोष, अथवा कश्चिन्मन्दमतिविनेयमधिकृत्यतदुक्तं द्रष्टव्यम्, न पुनरेष एव सर्वत्र श्रवणविधिनियमः, उद्घटितज्ञविनेयानां सकृच्छवणत एवाशेषग्रहणदर्शनादितिकृतं प्रसङ्गन, सेत्तमित्यादि, तदेतच्छ तज्ञानं, तदेतत्परोक्षमिति ।" ___ इसका भावार्थ पहले लिखा जा चुका है। इस प्रकार अङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान और परोक्ष का विषय . वर्णन समाप्त हुआ। नन्दी सूत्र भी समाप्त हुआ। जैनधर्मदिवाकर, जैनाचार्य श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा कृत श्री नन्दीसूत्र की व्याख्या समाप्त

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