Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Acharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan

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Page 500
________________ द्वादशाङ्ग परिचय ३५६ उपसंरण करते हुए श्रुत के १४ भेदों का स्वरूप बतलाने के पश्चात् अन्त में एक ही गाथा में सात पक्ष और सात प्रतिपक्ष इस प्रकार चौदह भेद कथन किए हैं, जैसे कि १ अक्षर, २ संज्ञी, ३ सम्यक् ४ सादि, ५ सपर्यवसित, ६ गमिक, ७ अङ्गप्रविष्ट । ८ अनक्षर, ६ असंज्ञी, १० मिध्या, ११ अनादि, १२ अपर्यवसित, १३ अगमिक, और १४ अनंगप्रविष्ट इस प्रकार श्रुत के मूल भेद १४ हैं, फिर भले ही वह श्रुत, ज्ञानरूप हो या अज्ञानरूप । श्रुत एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय छद्मस्थ जीवों तक सभी में पाया जाता है। श्रुतज्ञान का अधिकारी कौन ? कन्या, लक्ष्मी और श्रुतज्ञान ये सब अधिकारी को ही दिए जाते हैं, अनधिकारी को देने से सिवाय हानि के और कोई लाभ नहीं है । श्रुतज्ञान देना गुरु के अधीन है । यदि शिष्य सुपात्र है तो श्रुतज्ञान देने में गुरु कभी भी कृपणता न करे, किन्तु कुशिष्य को श्रुतज्ञान देने से प्रवचन की अवहेलना होती है । सर्प को दूध पिलाने से पीयूष नहीं बल्कि विष ही बनता | अविनीत, रसलोलुपी, श्रद्धाविहीन तथा अयोग्य ये श्रुतज्ञानके कथंचित् अनधिकारी हैं, किन्तु हठी और मिथ्यादृष्टि तो सर्वथा ही अनधिकारी हैं । बुद्धि स्वतः चेतना रूप है, वह किसी न किसी गुण या अवगुण से अनुरंजित रहती है। जो बुद्धि गुणाग्राहिणी है, वही श्रुतज्ञान के योग्य है, शेष अयोग्य । पूर्वधर और धीर पुरुषों का कहना है कि पदार्थों का यथातथ्य स्वरूप बतलाने वाले आगम और मुमुक्षुओं को यथार्थं शिक्षा देने वाले शास्त्र इनका ज्ञान तभी हो सकता है, जब कि विधि पूर्वक बुद्धि के आठ गुणों के साथ उनका अध्ययन किया जाए । जो व्रतों का निरतिचार पालन करते हुए परीषह आदि से विचलित नहीं होते, उन्हें धीर कहते हैं । गाथा में आगम और शास्त्र इन दोनों को एक पद में ग्रहण किया है। इसका सारांश यह है— जो आगम है, वह निश्चय ही शास्त्र भी है, किन्तु जो शास्त्र है, वह आगम हो और न भी। क्योंकि अर्थशास्त्र, कोकशास्त्र आदि भी शास्त्र कहलाते हैं । अतः सूत्रकार ने गाथा में आगमशास्त्र का प्रयोग किया है । आगम से सम्बन्धित शास्त्र ही वास्तव में सूत्रकार को अभीष्ट है, अन्य नहीं । आगम विरुद्ध ग्रंथों से यदि सर्वथा निवृत्ति पाई जाए, तभी आगम-शास्त्रों का अध्ययन किया जा सकता है। वृत्तिकार ने भी अपने शब्दों में इस विषय का उल्लेख किया है ― "श्रागमेत्यादि श्रा अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण मर्यादया या यथावस्थितप्ररूपण - रूपया गम्यन्ते – परिच्छिद्यन्तेऽर्था येन स श्रागमः सचैवं व्युत्पत्या श्रवधिकेवलादिलक्षणोऽपि भवति, ततस्तद्व्यवच्छेदार्थं विशेषणान्तरमाह - शास्तेति शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रमागमशास्त्रम् । श्रागमग्रहणेन षष्टीतंत्रादि कुशास्त्रव्यवच्छेदः, बुद्धि के आठ गुण जो मनुष्य बुद्धि के आठ गुणों से सम्पन्न है, वही श्रुतज्ञान से समृद्ध हो सकता है। श्रुतज्ञान आत्मा की सम्पत्ति है, जिसके बिना दुर्गति में ठोकरें खानी पड़ती हैं और उस श्रुत के सहयोग से आत्मा केवलालोक तक पहुंचने में समर्थ हो जाता है । निम्नलिखित आठ गुण श्रुतज्ञान के लाभ में असाधारण कारण हैं, जैसे कि १. सुस्सूसह - इसका अर्थ है - उपासना या सुनने की इच्छा, जिसे जिज्ञासा भी कहते हैं ।

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