Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Acharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan

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Page 470
________________ द्वादशाङ्ग परिचय *** कम्मे, ४. प्रगाढ सेणिप्रापरिकम्मे, ५. उवसंपज्जणसे णिप्रापरिकम्मे, ६. विप्पज - हणसेणिद्यापरिकम्मे, ७. चुग्रचुग्रासेणिप्रापरिकम्मे । छाया - अथ किं तत् परिकर्म ? परिकर्म सप्तविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा १. सिद्धश्रेणिकापरिकर्म, २. मनुष्यश्रेणिका - परिकर्म, ३. पृष्टश्रेणिका-परिकर्म, ४. अवगाढश्रेणिका-परिकर्म, ५. उपसम्पादनश्रेणिका - परिकर्म, ६. विप्रजहत् श्रेणिका-परिकर्म, ७. च्युताच्युतश्रेणिका - परिकर्म । भावार्थ - वह परिकर्म कितने प्रकार का है ? परिकर्म सात प्रकार का है, जैसेसिद्ध-श्रेणिका परिकर्म, २. मनुष्य श्रेणिका परिकर्म, ३. पृष्ट श्रेणिका परिकर्म, ४. अवगढ -श्रेणिका परिकर्म, ५. उपसम्पादन - श्रेणिका परिकर्म, ६. विप्रजहत्श्रेणिका परिकर्म, ७. च्युताच्युतश्रेणिका - परिकर्म । टीका - गणितशास्त्र में संकलना आदि १६ परिकर्म कथन किए गए हैं, उनका अध्ययन करने से जैसे शेष गणितशास्त्र के विषय को ग्रहण करने की योग्यता हो जाती है । ठीक उसी प्रकार परिकर्म के अध्ययन करने से दृष्टिवादश्रुत के शेष सूत्र आदि को ग्रहण करने की योग्यता हो जाती है, तदनन्तर दृष्टिवाद के अन्तःपाति सभी विषय सुगम्य हो जाते हैं। दृष्टिवाद का प्रवेश द्वार परिकर्म है । इस विषय में चूर्णिकार के शब्द निम्नलिखित हैं “परिकम्मेति योग्यता करणं, जह गणियस्स सोलस परिक्रम्मा, तथाहिय सुत्तत्थो सेस गणियस्स जोगो भवइ, एवं गहिय परिकम्म सुत्तरथो सेस सुत्ताइं दिट्ठवायस्स जोग्गो भवइ ति । " वह परिकर्म मूलत: सात प्रकार का है और मातृकापद आदि के उत्तर भेदों की अपेक्षा से ८३ प्रकार का है । पहले और दूसरे परिकर्म के १४- १४ भेद और शेष पांच परिकर्म के ११-११ भेद होते हैं । इस प्रकार कुल परिकर्म के ८३ भेद हो जाते हैं । वह परिकर्म मूल और उत्तर भेदों सहित व्यवच्छिन्न हो चुका है। कतिपय प्राचीन प्रतियों में 'पाढो आमासपयाई' के स्थान पर 'पाढो आगासपयाई' यह पद उपलब्ध होता है । इनमें कौन सा पद ठीक है ? इसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता, जब तक कि मूल आगम न 1 परिकर्म के सात मूल भेदों में आदि के छः पद स्व-सिद्धान्त के प्रकाशक हैं और अन्तिम पद सहित सातों ही परिकर्म गोशालक प्रवत्तित आजीविक मत के प्रकाशक हैं । अथवा आदि के छः पद चतुर्नयिक हैं, जो कि स्व-सिद्धान्त के द्योतक हैं। वास्तव में नय सात हैं, उनमें नैगमनय दो प्रकार से. वर्णित है – सामान्यग्राही और विशेषग्राही । इनमें पहला संग्रह में और दूसरा व्यवहार में अन्तर्भूत हो जाता है । भाष्यकार भी इसी प्रकार लिखते हैं जो सामन्नग्गाही य, स नेगमो संगह गश्रो श्रहवा । इयरो वबहार मिश्र, जो तेण समाण निद्दिसो ॥

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