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कुछ मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान की समानता भी है, जैसे
१. संयतत्व-उक्त दोनों ज्ञान संयत को ही हो सकते हैं, अविरति या विरता-विरति को नहीं।
२. अप्रमत्तत्व-मन:पर्यवज्ञान जैसे ऋद्धिमान, अप्रमत्तसंयत को ही हो सकता है, वैसे ही केवलज्ञान भी अप्रमत्त संयतों को ही हो सकता है।
३. अविपर्ययत्व-जैसे मन:पर्यवज्ञान, अज्ञान के रूप में परिणत नहीं हो सकता, वैसे ही केवलज्ञान भी।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि केवलज्ञान सब ज्ञानों में श्रेष्ठतम है, फिर उसे पहला स्थान न देकर अन्तिम स्थान दिया है, यह कहां तक उचित है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जो ज्ञानचतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता रखता है, वह केवलज्ञान को भी नियमेन प्राप्त कर सकता है। जब तक क्षायोपशमिक ज्ञान पहले प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक केवलज्ञान नहीं हो सकता, यह शास्त्रीय नियम है। उत्पन्न होने आश्रयी किसी को मति-श्रुत होने के बाद केवलज्ञान होता है, किसी को मति-श्रुतअवधि होने के पश्चात् केवलज्ञान होता है, किसी को मति-श्रुत, मन:पर्यवज्ञान होने पर फिर केवलज्ञान होता है और किसी को चार ज्ञान होने पर ही केवलज्ञान होता है, क्योंकि केवलज्ञान क्षायिक लब्धि है।
संज्ञी के ६०० भवों को जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा मनुष्य ही जान सकता है, यह मतिज्ञान की उत्कृष्टता है । प्रतिपूर्ण दृष्टिवाद का ज्ञान भी मनुष्य ही अध्ययन कर सकता है, यह श्रुतज्ञान की उत्कृष्टता है, परमावधिज्ञान या अप्रतिपाति अवधिज्ञान भी मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है, अन्य गतियों के जीव नहीं। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान मनुष्य को तब हो सकता है, जब वह केवलज्ञान होने के अभिमुख होता है, अन्यथा मध्यम तथा जघन्य ज्ञान में रहता है, उत्कृष्ट तक नहीं पहुंचने पाता । यह भी कोई नियम नहीं है कि क्षयोपशमजन्यज्ञान उत्कृष्ट हुए बिना केवलज्ञान नहीं होता। नियम यह है कि क्षयोपशमजन्यज्ञान की उत्कृष्टता से नियमेन उसी भव में केवलज्ञान हो जाता है।
साकार और अनाकार उपयोग की परिभाषा 'उप' पूर्वक युज् –युञ्जने धातु, भाव में घञ् प्रत्ययान्त होने से उपयोग शब्द बनता है । जिसके द्वारा जीव वस्तुतत्त्व को जानने के लिए व्यापार करता है, उसे उपयोग कहते हैं । जीव का बोध रूप व्यापार ही उपयोग कहलाता है।' अथवा जो अपने विषय को व्याप्त कर दे, उसे उपयोग कहते हैं। वह उपयोग दो भागों में विभक्त है-जैसे कि साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। इनके विषय में विभिन्न धारणाएं हैं
१. जिस उपयोग का विषय भिन्न पदार्थ होता है. वह साकारोपयोग है और जिसका विषय भिन्न पदार्थ नहीं पाया जाता, वह अनाकारोपयोग है।
२. घट-पट . आदि बाह्य पदार्थों का जानना साकारोपयोग है और बाह्य पदार्थों को ग्रहण करने के लिए स्वप्रत्ययरूप प्रयत्न का होना अनाकारोपयोग है।
३. पर्यायाथिक की अपेक्षा साकारोपयोग है और द्रव्याथिक की अपेक्षा अनाकारोपयोग कहलाता है। ४. सचेतन और अचेतन वस्तु में उपयुक्त आत्मा जब वस्तु को पर्याय सहित जानता है, तब वह
१. उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रतिव्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः-प्रज्ञापना सूत्र पद २६ वां-वृत्ति ।