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की अपेक्षा से आदि के तीन ज्ञान जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ६६ सागरोपम से कुछ अधिक, अतः काल की अपेक्षा से तीनों में समानता है, विषमता नहीं।
३. विपर्यय-मिथ्यात्व के उदय से जैसे, मति-श्रुत ये दोनों अज्ञान के रूप में परिणत हो जाते हैं, वैसे ही अवधिज्ञान भी विभंगज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है । मति-श्रुत और अवधि ये तीन सम्यक्त्व के साथ ज्ञान कहलाते हैं. और मिथ्यात्व के साथ अज्ञान कहलाते हैं।
___ जो इन्हें ज्ञान और अज्ञान रूप कहा जाता है, वह शास्त्रीय संकेत के अनुसार है। इस विषय में उमास्वति जी ने भी कहा है'–मतिश्रुत और अवधि ये तीनों ज्ञान विपर्यय भी हो जाते हैं अर्थात विपरीत भी हो जाते हैं । जब मति-श्रुत और विभंगज्ञान वाले को सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, तब तीनों अज्ञान ज्ञान के रूप में परिणत हो जाते हैं । जब मिथ्यात्व का उदय हो जाता है, तब तीन ज्ञान के धर्ता भी अज्ञानी बन जाते हैं।
४. लाभ-विभंगज्ञानी मनुष्य, तिर्यंच, देवता और नारकी को जब यथा प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण । और अनिवृत्तिकरण के द्वारा सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है, तब पहले जो तीन अज्ञान थे, वे तीनों मति, श्रुत और अवधि के रूप में परिणत हो जाते हैं । अतः लाभ की दृष्टि से तीनों में समानता है । अवधि और मनःपर्यव में परस्पर साधर्म्य
अब प्रश्न पैदा होता है कि अवधिज्ञान के पश्चात् मनःपर्यवज्ञान क्यों प्रयुक्त किया ? केवलज्ञान क्यों नहीं ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि अवधिज्ञान की समानता जितनी मनःपर्यव के साथ है. उतनी केवलज्ञान के साथ नहीं, जैसे कि
1. छद्मस्थ—अवधिज्ञान जैसे छद्मस्थ को होता है, वैसे ही मनःपर्यवज्ञान भी छद्मस्थ को होता है, दोनों में इस अपेक्षा से समानता है।
२. विषय-अवधिज्ञान का विषय जैसे रूपी द्रव्य हैं, अरुपी नहीं, वैसे ही मनःपर्यवज्ञान का विषय भी मनोवर्गणा के पुद्गल हैं।
२. उपादानकारण-अवधिज्ञान जैसे क्षायोपशमिक है, वैसे ही मनःपर्यवज्ञान भी क्षायोपशमिक है, इस अपेक्षा से भी दोनों में साम्य है।
___४. प्रत्यक्षत्व–अवधिज्ञान जैसे विकलादेश पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, वैसे ही मनःपर्यवज्ञान भी, इस दृषि से भी दोनों में साधर्म्य है ।
१. संसार भ्रमण-अवधिज्ञान से प्रतिपाति होकर जैसे उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्गल परावर्तन कर सकता है, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान के विषय में भी समझ लेना चाहिए, इस कारण भी दोनों में समानता है । मनःपर्यव और केवलज्ञान में परस्पर साधर्म्य
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि मनःपर्यवज्ञान के पश्चात् केवलज्ञान का क्रम क्यों रखा है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जितने क्षयोपशमजन्य ज्ञान हैं, उनका न्यास पहले किया गया है। तथा
१. तत्वार्थ सूत्र अ १, सू० ३२-३३ ।