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२. हेऊहिं ति–हेतव–उपपत्तयः, ताश्चेमाः केन कारणेन रत्नप्रभेत्यभिधीयते ? उच्यते-यस्मादस्या रत्नमयं काण्डं तस्माद्रत्नप्रभा, रत्नानि प्रभाः स्वरूपं यस्या सा रत्नप्रभेति व्युत्पत्तेरिति । ।
३. उवमाहि ति–उपमाभिः, 'माङ्' माने अस्मादुपपूर्वाद् उपमितमुपमा 'उपसर्गादातः' इति अङ प्रत्ययः, ताश्चेवं-रत्नप्रभायां रत्नाऽऽदीनि कांडानि वर्णविमागेन कीदृशानि पद्मरागेन्दुसदृशानीत्यादि ।
___४. दिट्ठन्तेहिं ति–दृष्ट: अंतः परिच्छेदो विवक्षितसाध्यसाधनयोः सम्बन्ध्रस्याविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र ते दृष्टान्तास्तैर्यथा घटः स्वगतैर्धमैः पृथुबुध्नोदराद्याकारादिरूपैरनुगतपरधर्मेभ्यश्च पटादिगतेभ्यो व्यतिरिक्त उपलभ्यत इति पटादिभ्यः पृथक् वस्त्वन्तरं तथैवैषापि रत्नप्रभा स्वगतभेदैरनुषक्ता शर्कराप्रभादिभ्यश्च व्यतिरिक्तेति ताभ्यः पृथक वस्त्वन्तरमित्यादि।
५. वरणेहिं ति-शुक्लादि वर्णविभागेन तेषामेव उत्कर्षापकर्षसंख्येयासंख्येयानन्तगुणविभागेन च वर्णग्रहणमुपलक्षणं, तेन गन्ध-रस-स्पर्शविभागेन चेति द्रष्टव्यम् ।
६. संठाणेहिं ति–यानि तस्यां रत्नप्रभायां भवननारकादीनि संस्थानानि तद्यथा-ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अन्तो चउरंसा, अहे पुक्खरकरिणया संठाण संठिया तत्थ ते ण निरया अन्तो वट्टा, बाहिं चउरंसा अहे खुरप संठाण संठिया इत्यादि ।
७. पमाणेहिं ति–परिमाणानि यथा असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लप्पमाणमेत्ता अायामविक्खंभेण मित्यादि।
८. पडोयारेहिं ति–प्रति सर्वतः सामरत्येन अवतीर्यते व्याप्यते यैस्ते प्रत्यवतारास्ते चात्र घनोदध्यादिवलया वेदितव्यास्ते हि सर्वासु दिनु विदितु चेमा रत्नप्रभा परिक्षिप्प व्यवस्थितास्तैः--
-मलयगिरिकृत वृत्तिः। नन्दीसूत्र में साकारोपयोग रूप पांच ज्ञान का ही वर्णन है। यद्यपि साकारो योग में पांच ज्ञान, तीन अज्ञान का समावेश भी हो जाता है, तदपि तीन अज्ञान का वर्णन प्रस्तुत सूत्र में नगण्य ही है। मुख्यता तो इसमें ज्ञान की है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन का परस्पर नित्य सम्बन्ध है । दूसरी ओर मिथ्यात्व और अज्ञान का साहचर्य नित्य है।
___ जैन आगमों में तथा कर्मग्रन्थों में चौदह गुणस्थानों का सविस्तर वर्णन मिलता है। पहले गुणस्थान में अनन्त-अनन्त जीव विद्यमान हैं, जो कि मिथ्यात्व के गहन अन्धकार में भटक रहे हैं। उनमें कतिपय अनादि अनन्त मिथ्यादृष्टि जीव हैं। कितने ही अनादि सान्त मिथ्यादृष्टि हैं और कतिपय सादि सान्त मिथ्यादृष्टि हैं। तीनों भागों में अनन्त-अनन्त जीव हैं, किन्तु सास्वादन, मिश्र, अविरत-सम्यग्दृष्टि और देशविरत (श्रावक) इन चार गुणस्थानों में असंख्यात जीव पाए जाते हैं।
असंख्यात के असंख्यात भेद होते हैं । जीवों की आयु और कर्मों की स्थिति अद्धापल्योपम से ग्रहण की जाती है, किन्तु जीवों की गणना क्षेत्रपल्योपम से । क्षेत्रसागरोपम से और अलोक में लोक जैसे खण्ड अंसंख्यात तथा अनन्त के जो आगम में उदाहरण दिए हैं, उन सबका प्रारम्भ क्षेत्र पल्योपम से लिया जाता है। क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग में यावन्मात्र आकाश प्रदेश हैं, वे चाहे बालाग्रखण्डों से स्पृष्ट हैं या अस्पृष्ट, हैं असंख्यात ही।
उपर्युक्त चार गुणस्थानो में जितने जीव हैं, यदि उन्हें एकत्रित किया जाए तो भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र राशि बनेगी । पृथक्-पृथक् उनकी चारों राशि में भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग